यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९८
दुखी भारत


व्यवस्थापना हुई है। अपने छुट्टी के समय को भी वे किसी बुद्धिमानी या सभ्यता के काम में नहीं लगा सकते। यह सब देखकर मैं अपने आप पूछता हूँ कि क्या हमें ऐसी सभ्यता से सन्तुष्ट हो जाना चाहिए जिसमें ये सब बाते सम्भव हैं। और क्या यह हमारे कर्तव्य का एक अङ्ग न होना चाहिए कि हम अपनी सन्तति के लिए ऐसी व्यवस्था कर जाय जिससे उन्हें अपनी पहुँच में अधिक सुखमय, अधिक संस्कृत और अधिक विस्तृत जीवन प्राप्त हो सके?"

जब उन्होंने 'हाउस आफ कामन्स' में व्याख्यान दिया था तब फिर यही इच्छा प्रकट की थी कि:— "वह क्या गुण है जो हम मोटे तौर पर अपने मनुष्यों में चाहते हैं? यही कि वे भले नागरिक हों, कर्तव्यपरायण और सम्माननीय हों, मस्तिष्क और शरीर से स्वस्थ हों, अपने व्यवसायों में सिद्धहस्त हों और अपने अवकाश का सदुपयोग करना जानते हो।"

इंगलैंड के शिक्षा-सम्बन्धी व्यय के अङ्कों का हवाला देने के बाद—जो १६,०००,००० पौंड राज्य-कर से, १७,०००,००० पौंड स्थानिक करों से और कदाचित् ७,०००,००० पौंड फीस और व्यक्तिगत दानादि से सब मिलाकर ४०,०००,००० पौंड या भारतीय सिक्के में ६० करोड़ रुपया प्राप्त हुआ था—शिक्षा के लिए और भी धन माँगते हुए माननीय मिस्टर फिशर ने ठीक ही कहा था कि 'जब हम एक प्रकार के उत्पादक व्यय पर विचार कर रहे हैं जो कि एक लाभ के काम में रुपया ही लगाना नहीं है वरन उसका बीमा भी करा लेने के समान है तब हमारे पास केवल व्यय का ही प्रश्न नहीं रह सकता। उस दशा में हमें एक पूरक प्रश्न भी पूछना चाहिए। हमें केवल यही न पूछना चाहिए कि हम क्या व्यय कर सकते हैं? और वे 'पूरक प्रश्न' को अधिक महत्व-पूर्ण और अधिक विचारणीय बतलाते हैं। चारों तरफ से 'किफ़ायत' की आवाज़ें उठने पर भी फिशर महाशय अपनी बात पर दृढ़ रहे और बोले कि 'हमें अपने देश की "मनुष्यतारूपी" सम्पत्ति में किफ़ायत करनी चाहिए। क्योंकि वही हमारी वह मूल्यवान् सम्पत्ति है जिसके व्यर्थ व्यय से हमने बहुत काल तक दुःख भोगा है।'