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एक महान् वकील


हैं कि 'सर्वसाधारण के लिए अनिवार्य्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए....।' ब्रिटिश राजनीतिज्ञ भी स्वयं अपने देश के सम्बन्ध में यही बात स्वीकार करते हैं।

आधुनिक राजनीतिज्ञों के सामने शिक्षा-सम्बन्धी क्या आदर्श है इसकी एक झलक हमें श्रीयुत फिशर के व्याख्यान के आगे के उद्धरणों से जो मैंने पहले अपनी शिक्षा-विषयक पुस्तक के लिए चुने थे, दिखाई पड़ जाती है:—

"प्रचलित शिक्षा का क्षेत्र यह है कि वह इस देश के पुरुषों और स्त्रियों को नागरिक के कार्य्यों के उपयुक्त बनावे। नागरिक लोग जिस समाज के अङ्ग होते हैं उसके लिए उनसे जीवन धारण करने को कहा जाता है, कुछ से मरने की भी प्रार्थना की जाती है। यह बात कि उन्हें अज्ञानता की गूँगी असमर्थता के चङ्गुल से छुड़ाना चाहिए, यदि अन्तरात्मा की आज्ञा न हो तो कम से कम उस राजनैतिक बुद्धिमत्ता का एक प्रारम्भिक अङ्ग अवश्य है जिसको कि करोड़ों नये मतदाताओं का भावी मताधिकार एक अद्वितीय महत्त्व दे रहा है। परन्तु केवल राजनैतिक दृष्टि से ही यह बात आवश्यक नहीं है। वास्तव में मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि जहाँ तक हमारी अपूर्ण सामाजिक व्यवस्थाएँ आज्ञा दें वहाँ तक हम ज्ञान, हृदयोद्गार; और आशा के संसार में जो कुछ भी सर्वोत्तम वस्तु जीवन हमें दें सके उसे समझे और उसका उपभोग करें।"

ब्रैडफोर्ड में व्याख्यान देते हुए श्रीयुत फिशर ने कहा था:—

"जब मैंने राष्ट्रीय शिक्षा-सम्बन्धी अपना निरीक्षण प्रारम्भ किया तो यह बात जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गया—मैं अनुमान करता हूँ कि यह सुनकर प्रत्येक व्यक्ति की यही दशा होगी—कि इस देश में (ग्रेट ब्रिटेन में) लाखों नरनारी ऐसे हैं जो जीवन का समुचित सद्व्यय नहीं कर रहे हैं। लाखों नरनारी ऐसे हैं जो पुस्तकों से कोई लाभ नहीं उठाते, सङ्गीत या चित्र-दर्शन में कोई सुख नहीं अनुभव करते, और प्रकृति के सरल सौन्दयों में कोई विशेष आनन्द नहीं पाते। वे कल-पुर्जों के उदास कामों से बंधा जीवन व्यतीत करते हैं, लोहे और फौलाद में जकड़े हैं। न उनमें कविता की कोई झलक है, न कल्पना का कोई स्पर्श। जिस संसार में हम रहते हैं उसके वैभव और सौन्दर्य्य का उन्हें अत्यन्त क्षीण ज्ञान है। वे अपने साधारण उदास कामों में वह दिलचस्पी लेने में भी असमर्थ हैं जिसका सम्बन्ध उन सिद्धान्तों की वैज्ञानिक प्रशंसा से है जिन पर कि उन कामों की