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दुखी भारत


आधुनिक राष्ट्र की शिक्षा-सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति जनता के निजी उद्योगों से उनमें कितनी ही तत्परता क्यों न हो, कदापि सम्भव नहीं है। अपनी शिक्षा-विषयक पुस्तक के पांचवें अध्याय में मैंने उस समय के सरकारी शिक्षा-बोर्ड के सभापति माननीय एच॰ ए॰ एल फिशर के तात्कालिक व्याख्यानों के बड़े बड़े उद्धरण देकर इस बात पर बल देने का प्रयत्न किया था कि आज-कल समस्त सभ्य देशों में प्रत्येक प्रकार की शिक्षा देने का काम सरकार का ही समझा जाता है। सरकार का यह देखना अधिकार और कर्तव्य है कि नागरिक निरक्षर और अशिक्षित तो नहीं होते जा रहे हैं। शिक्षा-सम्बन्धी समस्यायों पर ब्रिटेन के प्रमाणस्वरूप नेता श्रीयुत फिशर ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि[१]:—

"यद्यपि सरकार नवयुवकों को मजदूरी करके द्रव्योपार्जन करने से रोक नहीं सकती [क्यों?] पर यह शिक्षा का भी उतना ही मूल्य नियत कर सकती है, और इसे अवश्य करना चाहिए जितना कि द्रव्योपार्जन के लिए मज़दूरी करने का है। [इस बात पर दृढ़ रहने का इसका अधिकार और कर्तव्य है कि यह सर्वसाधारण की शिक्षा में विश्वास रखती है] और लोगों के दिल में इसे यह भी विश्वास जमा देना चाहिए कि शिक्षा से इसका तात्पर्य्य शिक्षा का ढोंग रचना नहीं, पर एक ऐसी वस्तु उपस्थित करना है जो ठोस हो और जिसका लोगों के हृदय और चरित्र पर स्थायी प्रभाव पर पड़े और यह कि शिशु पर इस शिक्षा का दावा बहुत बड़ा है.....। व्यक्तिगत परिस्थितियों पर निर्भर कुछ व्यय के भय से सरकार को अपनी प्रजा में ज्ञान और बुद्धि के प्रचार करने के महान् उद्देश से विमुख नहीं होना चाहिए। पहले इसे आवश्यकता और प्राप्त साधनों के अनुसार सब प्रकार से योग्य और प्रभावशाली पाठ्य-क्रम नियत करने चाहिए और तब इसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जिससे प्रत्येक नागरिक को आत्म-विकास का पूर्ण अवसर मिले और विशेष दशाओं में इसे विशेष सहायता करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।" [कोष्टक के शब्द हमारे हैं]

सर्वसाधारण को उचित शिक्षा देना सरकार का अधिकार और कर्तव्य है। इसलिए केवल भारतीय राजनीतिज्ञ ही ऐसे नहीं हैं जो यह चाहते


  1. फिशर के व्याख्यानों का उद्धरण देने में मैं अपनी राष्ट्रीय शिक्षा समस्या नामक पुस्तक के पांचवें अध्याय की सामग्री काम में ला रहा हूँ।