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दुखी भारत


के आधे भाग की साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर सकता तब यह एक ऐसा दृश्य उपस्थित करता है जिसे देख कर देवता लोग भी रोने लगेंगे। भारतवर्ष की आश्चर्य्यजनक दीनता उसके जीवन की एक दुःखान्त घटना है और इसका मुख्य कारण शिक्षा-सम्बन्धी साधनों का अभाव है।"

"ऐसी परिस्थिति में समस्त सार्वजनिक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य यह होना चाहिए कि नागरिकों की उत्पादक-शक्ति की वृद्धि हो। राष्ट्र की सर्व-प्रथम आवश्यकता शिक्षा है और समस्त राष्ट्रीय-कर पर उसका अधिकार होना चाहिए। राष्ट्रीय जीवन की इस प्रथम आवश्यकता को प्रत्येक बालक-बालिका की और प्रत्येक युवक की जो शिक्षा के योग्य हो, पहुँच में रखने के लिए राष्ट्र को समस्त सुख-सामग्री से ही नहीं अन्य दूसरी आवश्यकताओं से भी, प्रत्येक रोम से परिश्रम करके मुंह मोड़ लेना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब औद्योगिक शिक्षा का देशव्यापी प्रचार किया जाय और सम्पूर्ण देश को जीवन की साधारण आवश्यकताओं तथा औद्योगिक ज्ञान की उन्नति में सहायक होने योग्य व्यावहारिक विज्ञान से भर दिया जाय।

"इतनी व्यापक शिक्षण-पद्धति के लिए प्रचुर धन चाहिए। यह धन इन रीतियों से प्राप्त हो सकता है—(क) वर्तमान करों से (ख) नये करों से (ग) सार्वजनिक शासन के अन्य विभागों का व्यय कम कर देने से (घ) राष्ट्र अथवा प्रान्त से ऋण लेकर। शिक्षा के लिए धन की आवश्यकता और उसकी पूर्ति करने का भाव जनता में उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि 'उसके सामने शिक्षा का पुरस्कार और सामग्री उपस्थित की जाय।'

उक्ति चिह्नों के भीतर के अन्तिम शब्द अमरीका के पहले उल्लेख किये पर्चे से लिये गये हैं। अब टेक्साज़ विश्वविद्यालय के शिक्षा-शास्त्र के अध्यापक डाक्टर ए॰ केसवेल एलिस की इस सम्बन्ध में अखिल विश्व की विशेषतया जर्मनी, जापान, रूस, अमरीका और दूसरे देशों की जाँच-पड़ताल के परिणामों पर विचार कीजिए। जर्मनी के सम्बन्ध में वे लिखते हैं:—

"चाहे राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखिए, चाहे व्यक्तिगत नागरिक के दृष्टिकोण से, दोनों दशाओं में औद्योगिक योग्यता की वृद्धि करने में शिक्षा का प्रभाव बहुत ही अधिक प्रतीत होगा। उदाहरण के लिए इस बात का और क्या कारण खोजें कि जर्मनी के समान राष्ट्र, जिसकी प्राकृतिक उपज अत्यन्त परिमित है, पर सार्वजनिक स्कूल बड़े ही उत्तम हैं, अपने पड़ोसी रूस से जिसके निवासी स्वस्थ और बुद्धिमान् हैं और जिसकी प्राकृतिक उपज का ठिकाना नहीं है पर