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दुखी भारत


गवर्नर जनरल के अन्तिम कानून का स्पष्टीकरण' नामक अपने निबन्ध में जो लगभग ट्रेवेलियन की पुस्तक के ही समय में प्रकाशित हुआ था, वे लिखते हैं:—

"जब रोमन लोग एक प्रान्त को जीतते थे तब वे उसी समय से उस पर अपना रङ्ग चढ़ाने में लग जाते थे। अर्थात् वे विजित लोगों में अपनी ही भाषा और साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न करने का उद्योग करते थे और इस प्रकार पराधीन जाति की संगीत, प्रेम-कथा, इतिहास, विचार, अनुभूति और कल्पना आदि का प्रवाह रोमन आदर्शों की ओर मोड़ देते थे जिससे रोम के स्वार्थों का पोषण और परिवर्द्धन होता था। और क्या रोम सफल नहीं हुआ?"

ट्रेवेलियन सोचता था कि भारतीय शिक्षण-पद्धति से ब्रिटिश राज्य की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए वह चाहता था कि भारतीय युवकों का अँगरेज़ी शिक्षा में पालन-पोषण हो:—

("अंगरेजी साहित्य का प्रेम...ब्रिटिश सम्बन्ध के लिए अनुकूल होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।) हमारे साहित्य के द्वारा हम से पूर्णरूप से परिचित हो जाने पर भारतीय युवक हमको विदेशी समझना बन्द कर देंगे....वे हमारे साथ विद्रोह करने के स्थान पर......उत्साह और चतुरता के साथ सहयोग करने लगेंगे[१]।"

इस नीति में जो राजनैतिक चाल थी उसका इससे और अधिक स्पष्ट वर्णन हो ही नहीं सकता था।

अब ज़रा ट्रेवेलियन के प्रसिद्ध रिश्तेदार लार्ड मेकाले के और भी स्पष्ट तथा उद्धृत करने योग्य शब्दों पर ध्यान दीजिए[२]:—

"हम लोगों को यथाशक्ति परिश्रम करके एक ऐसी जाति बना लेनी चाहिए (जो हमारे और हमारे अधीन करोड़ों मनुष्यों के बीच में मध्यस्त होकर रहे। यह जाति ऐसे लोगों की हो जो रक्त और रङ्ग में तो भारतीय हों पर रुचि, विचार, नीति और बुद्धि में अंगरेज़ हो।"


  1. १८३५ के पार्लकमीशन के सामने दी गई गवाही से।
  2. मिनट, १८३५।