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९०
मेह्रबाँ होके बुलालो मुझे, चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ, कि फिर आ भी न सकूँ
ज़ो'फ़ में, ता'न:-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है, कि उठा भी न सकूँ
ज़ह्र मिलता ही नहीं मुझको, सितमगर वर्नः
क्या क़सम है तिरे मिलने की, कि खा भी न सकूँ
९१
हमसे खुल जाओ, बवक़्त-ए-मै परस्ती, एक दिन
वर्नः हम छेड़ेंगे, रखकर 'अज्र-ए-मस्ती एक दिन
ग़र्रः-ए-औज-ए-बिना-ए-'आलम-ए-इम्काँ न हो
इस बलन्दी के नसीबों में है पस्ती, एक दिन
क़र्ज़ की पीते थे मै, लेकिन समझते थे, कि हाँ
रँग लायेगी हमारी फाक़: मस्ती, एक दिन
नग्म:हा-ए-ग़म को भी, अय दिल ग़नीमत जानिये
बेसदा हो जायगा, यह साज़-ए-हस्ती, एक दिन