पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/९४

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वहशत-यो-शेफ़्तः अब मरसियः कहवें, शायद मर गया ग़ालिब-ए-अाशुफ्तः नवा, कहते हैं ८८ आबरू क्या ख़ाक उस गुल की, कि गुलशन में नहीं है गरीबाँ नँग-ए- पैराहन, जो दामन में नहीं जो फ़ से, अय गिरियः, कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं रँग हो कर उड़ गया, जो तूं कि दामन में नहीं हो गये हैं जम'अ, अज्जा-ए-निगाह-ए-आफ़ताब ज़रें, उस के घर की दीवारों के रौज़न में नहीं क्या कहूँ तारीकि-ए-जिन्दान- ए - ग़म, अंधेर है पँबः नूर-ए-सुब्ह से कम, जिस के रौज़न में नहीं रौनक-ए-हस्ती है 'अिश्क-ए-ख़ानः वीराँ साज से अंजुमन बे शम्'अ है, गर बळ ख़िर्मन में नहीं ज़ख़्म सिलवाने से, मुझ पर चारः जूई का है तान गैर समझा है; कि लज्जत ज़ख़्म-ए-सूजन में नहीं बसकि हैं हम इक बहार-ए-नाज़ के मारे हये जल्वः-ए-गुल के सिवा, गर्द अपने मदफ़न में नहीं