पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/९३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७


की वफ़ा हम से, तो ग़ैर उसको जफा कहते हैं
होती आई है, कि अच्छों को बुरा कहते हैं

आज हम अपनी परीशानि-ए-ख़ातिर उनसे
कहने जाते तो हैं, पर देखिये, क्या कहते हैं

अगले वक्तों के हैं यह लोग, इन्हें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़्मः को, अन्दोह रुबा कहते हैं

दिल में आजाये है, होती है जो फ़ुर्सत ग़श से
और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं

है परे सरहद-ए-इदराक से, अपना मस्जूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबलः नुमा कहते हैं

पा-ए-अफ़गार प, जबसे तुझे रह्म आया है
ख़ार-ए-रह को तिरे हम, मेह्र गिया कहते हैं

इक शरर दिल में है, उससे कोई घबरायेगा क्या
आग मतलूब है हमको, जो हवा कहते हैं

देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्वत, क्या रँग
उसकी हर बात प हम, नाम-ए-ख़ुदा, कहते हैं