पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/७९

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फ़लक से, हमको 'अश-ए-रफ्तः का, क्या क्या तक़ाज़ा है
मता'-ए-बुर्दः को, समझे हुये है क़र्ज़, रहज़न पर

हम और वह बेसबब रँज, आशना दुश्मन, कि रखता है
शु'आ'-ए-मेह्र से, तुहमत निगह की, चश्म -ए-रौज़न पर

फ़ना को सौंप, गर मुश्ताक़ है अपनी हकीक़त का
फरोग़-ए-ताले'-ए-ख़ाशाक है मौक़ूफ़ गिलख़न पर

असद बिस्मिल है किस अन्दाज का, क़ातिलसे कहता है
कि, मश्क़-ए-नाज़ कर, ख़ून-ए-दो 'आलम मेरी गर्दन पर

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सितम कश मस्लिहत से हूँ, कि ख़ूबाँ तुझ प 'आशिक़ है
तकल्लुफ़ बर तरफ़, मिल जायगा तुझसा रक़ीब आख़िर

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लाज़िम था कि देखो मिरा रस्तः कोई दिन और
तनहा गये क्यों अब रहो तनहा कोई दिन और

मिट जायेगा सर, गर तिरा पत्थर न घिसेगा
हूँ दर प तिरे नासियः फ़रसा कोई दिन और