पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/७३

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नज़र में खटके है, बिन तेरे, घर की आबादी
हमेशः रोते हैं हम, देखकर दर-ओ-दीवार

न पूछ बे ख़ुदि-ए-'अश-ए-मक़दम-ए-सैलाब
कि नाचते हैं पड़े, सर बसर दर-ओ-दीवार

न कह किसी से, कि ग़ालिब नहीं ज़माने में
हरीफ़-ए-राज़-ए-महब्बत, मगर दर-ओ-दीवार

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घर जब बना लिया तिरे दर पर, कहे बिग़ैर
जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बिग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूँ किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बिग़ैर

काम उससे आ पड़ा है, कि जिसका जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बिग़ैर

जी में ही कुछ नहीं है हमारे, वगरनः हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बिग़ैर

छोड़ूगा मै न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बिग़ैर