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जिन्दगी यों भी गुज़र ही जाती
क्यों तिरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज्वाँ से लड़ाई होगी
घर तिरा ख़ुल्द में गर याद आया
आह वह जुरअत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आ के जिगर याद आया
फिर तिरे कूचे को जाता है ख़याल
दिल-ए-गुमगश्तः, मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मैं ने मजनूँ प लड़कपन में, असद
संग उठाया था, कि सर याद आया
३७
हुई ताख़ीर, तो कुछ बा'अिस-ए-ताख़ीर भी था
आप पाते थे, मगर कोई ‘अिनाँगीर भी था
तुम से बेजा, है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाइबः-ए-ख़ूबि-ए-तक़दीर भी था