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मैं ने रोका रात ग़ालिब को, वगर्नः देखते
उसके सैल-ए-गिरियः में, गर्दूं कफ़-ए-सैलाब था

१७


एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
खून-ए-जिगर, वदी'अत-ए-मिश़गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आईनः, तिमसाल दार था

गलियों में मेरी न'अश को खेंचे फिरो, कि मैं
जाँ दादः-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रः मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेरा आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-अिश्क़ को, पर अब
देखा, तो कम हुये प, ग़म-ए-रोज़गार था

१८


बसकि दुश्वार है, हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं, इन्साँ होना