सब आवाजों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं है क्योंकि मानव मस्तिष्क की तरह मानव कंठ भी असीमित योग्यता का मालिक है। उर्दू के वे शब्द जिनका दूसरा अक्षर बड़ी हे (ح) हो और यह हे (ح) गतिहीन हो और पहले अक्षर पर जबर हो तो उसे जबर नहीं बोला जाता बल्कि उस की आवाज जबर और ज़ेर के बीच में होती है। जैसे अह्मद, मह्बूब, बह्र, वह्शत वग़ैरः। इनका उच्चारण करते समय पहले अक्षर को हमेशः अ और ए के बीच बोलना चाहिये। कभी कभी छोटी हे (ه) के शब्दों के साथ भी यही होता है। जैसे क़ह्र।
उर्दू की एक और विशेषता यह है कि शा'अिरी में कुछ शब्दों की याये मज्हूल (मोटी आवाज़ देनेवाली ये) को ख़ारिज करके उसे ज़ेर से बदल दिया जाता है। इस तरह आवाज़ छोटी हो जाती है। उदाहरण के लिए एक (ایک) और मेरे (میرے) से जब याये मज्हूल ख़ारिज होती है तो 'ए' की आवाज छोटी हो जाती है। और इसे (ݴک) और (ے) लिखा जाता है। नागरी में इस आवाज़ को जो वास्तव में ज़ेर की खालिस आवाज़ है, व्यक्त करने का कोई तरीका नहीं। इसलिये मजबूरन ऐसे स्थानों पर इ की अलामत प्रयोग में लाई गई है। जैसे (इक) और (मिरे) यही सूरत कहीं कहीं वाव के साथ भी पेश आती है जहाँ उसकी पूरी आवाज़ कट कर पेश की आवाज़ में बदल जाती है। जैसे कोहसार کوہسار से کوہسار इसको मजबूरन (कुह्सार) लिखा गया है।
मेरी राय यह है कि नागरी लिपि की मात्राओं में उर्दू के ज़ेर () और पेश (') को सम्मिलित कर लेना चाहिये। चूँकि ज़बर जिसका रूप ज़ेर जैसा ही होता है और अक्षर के ऊपर लगाया जाता है, नागरी अक्षरों में सम्मिलित होता है, इसलिये इसे नागरी लिपि की मात्राओं में सम्मिलित करने की जरूरत नहीं। अलबत्तः किसी अक्षर से जबर की हरकत को ख़ारिज करने के लिए उसके नीचे हलन्त लगा देना चाहिये। जैसे (शम्'अ) के म और (बह्र) के "ह" में लगाया गया है।
इस तरह नागरी लिपि उर्दू की आवाज़ों को बड़ी हद तक व्यक्त करने में समर्थ हो जायगी।
नागरी लिपि में संशोधन और परिवर्द्धन का जो प्रस्ताव यहाँ पेश किया गया है, सम्भव है कि हिन्दी के कुछ क्षेत्रों में इसे स्वीकार करने योग्य न समझा जाय। लेकिन यह विश्वास है कि यह प्रस्ताव उन लोगों को भी सोचने का अवसर अवश्य देगा और इस प्रकार नागरी लिपि के दूसरे प्रश्नों पर भी, जिन्हे मैंने यहाँ नहीं छेड़ा है, विचार-विनिमय और वाद-विवाद हो सकेगा।