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जी ढूण्डता है फिर वही फ़ुर्सत, कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुये
ग़ालिब, हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से
बैठे हैं हम तहय्यः-ए-तूफ़ाँ किये हुये
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नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त, जाँ के लिये
रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आस्माँ के लिये
बला से गर मिशः-ए-यार तश्नः-ए-ख़ूँ है
रखूँ कुछ अपनी भी मिशगान-ए-ख़ू फ़िशाँ के लिये
वह ज़िन्दः हम हैं, कि हैं रूशनास-ए-ख़ल्क़, अय ख़िज़्र
न तुम, कि चोर बने 'अम्र-ए-जाविदाँ के लिये
रहा बला में भी मैं मुन्तिला-ए-आफ़त-ए-रश्क
बला-ए-जाँ है अदा तेरी इक जहाँ के लिये
फलक न दूर रख उस से मुझे, कि मैं ही नहीं
दराज़ दस्ति-ए-क़ातिल के इम्तिहाँ के लिये
मिसाल यह मिरी कोशिश की है, कि मुर्ग़-ए-असीर
करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिये