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ग़ालिब, गर इस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की
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ग़म खाने में बोदा, दिल-ए-नाकाम, बहुत हैं
यह रँज, कि कम है मै-ए-गुल्फ़ाम, बहुत है
कहते हुये साक़ी से हया आती है, वर्न:
है यों, कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है
ने तीर कमाँ में है, न सय्याद कमी में
गोशे में कफस के, मुझे आराम बहुत है
क्या ज़ोह्द को मानूँ, कि न हो गरचेः रियाई
पादाश-ए- 'अमल की तम'-ए- ख़ाम बहुत है
हैं अहल-ए-ख़िरद किस रविश-ए-ख़ास प नाजाँ
पा बस्तगि-ए-रस्म-ओ-रह-ए- 'आम बहुत है
ज़मज़म ही प छोड़ो, मुझे क्या तौफ़-ए-हरम से
आलूदः ब मै जामः-ए-एह्राम, बहुत है
है क़ेह्र गर अब भी न बने बात, कि उनको
इंकार नहीं और मुझे इब्राम बहुत है