पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/२०३

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भरम खुल जाये, ज़ालिम, तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रः-ए-पुर पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

मगर लिखवाय कोई उसको ख़त, तो हम से लिखवाये
हुई सुब्ह, और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

हुई इस दर में मंसूब मुझसे बादः आशामी
फिर आया वह ज़मानः, जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले

हुई जिन से तवक़्क़ो'अ, ख़स्तगी की दाद पाने की
वह हम से भी ज़ियादः खस्तः-ए-तेग़-ए-सितम निकले

महब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफ़िर प दम निकले

कहाँ मैखाने का दरवाज़:, गालिब, और कहाँ वा'अिज़
पर इतना जानते हैं, कल वह जाता था, कि हम निकले

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कोह के हों बार-ए-खातिर, गर सदा हो जाइये
बेतकल्लुफ, अय शरार-ए जस्तः,क्या हो जाइये

बैज़: आसा, तँग बाल-ओ-पर प है कुँज-ए-क़फ़स
अज़ सर-ए-नौ जिन्दगी हो, गर रिहा हो जाइये