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ज़िन्दगी में तो वह मह्फ़िल से उठा देते थे
देखूँ, अब मर गये पर, कौन उठाता है मुझे
२१९
रौंदी हुई है, कौकबः-ए-शह्रियार की
इतराये क्यों न खाक, सर-ए-रहगुज़ार की
जब उसके देखने के लिये आयें बादशाह
लोगों में क्यों नुमूद न हो, लालःजार की
भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम, वले
क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की
२२०
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, कि हर ख़्वाहिश प दम निकले
बहुत निकले मिरे अर्मान, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वह ख़ूँ, जो चश्म-ए-तर से 'अम्र भर यों दम बदम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे, लेकिन
बहुत बे आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले