पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१८

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'अिश्क स्वाभिमानी और मस्तकोन्नत है। जीवन के लिए यदि यह नियम है कि जो नालः (आर्तनाद) होठो तक नही आया वह सीने का दाग बन गया (२३-५, ११६, १२२-६, १४६-८, १५४-५, १६७, २१२-२) इसलिए दुख के सहन का साहस कम होना चाहिये और क्रोध का आवेग अधिक (फारसी शेर) तो 'अिश्क के लिए यह नियम कि:- -- 'अिज्ज-ओ-नियाज से तो वह आया न राह पर दामन को उसके आज हरीफ़ानः खैचिये (जमीम: ३८-२) उर्दू ग़जल की साकेतिकता का तकाजा यह है कि केवल मा शूक को नही बल्कि हर आदर्श को चाहे वह नये जीवन की कामना ही क्यो न हो इसी तरह दामन खेच कर प्राप्त किया जासकता है। शायद यही कारण है कि गालिब ने अपने आप को आईन-ए-ग़जलख्वानी ( काव्य-शास्त्र) में गुस्ताख (धृष्ट और अशिष्ट) कहा है (१७८-१२)। इससे उर्दू शाअिरी को एक नया मिजाज ( स्वभाव और स्वर ) मिला जिसके स्वाभिमान में हल्के से विद्रोह का सम्मिश्रण है। यह कभी तशकीक ( शंका ) के रूप में उभरता है और कभी व्यंग के और कभी कल्पना की कमंडे बन जाता है। गालिब के समकालीन इस मिजाज को नही समझ सके जो खून के चूंट पीकर मुसकुराता है और जीवन तथा मानव को नयी गरिमा प्रदान करता है। ग़ालिब से पहले खुदा और माशूक पर किसने व्यंग किया था, दुख-सहन के बॉध किसने तोड़े थे, जुल्म-ओ-सितम ( अन्याय और अत्याचार ) की चलती हुई तलवार को अपनी व्याकुलता के सागर की रक्त-तरंग किसने बनाया था ( १३३-५), किसने गजल की भावना में विचार का इतना अधिक सम्मिश्रण किया था, किसने ग़जल और क़सीदे की भाषा का अंतर मिटाकर नयी नज्म ( आधुनिक काव्य-शैली) की बुनियादे रखी थीं ( इसीलिए गालिब की गजल का स्वर मीर के स्वर से ऊँचा है)। १६ वी शताब्दी के अंत और २० वी शताब्दी के आरंभ मे गालिब की लोकप्रियता में जो अभिवृद्धि हुई है उसमें और बातो के आतिरिक्त इस नये मिजाज का भी योग है। यह स्वतंत्रता की चेतना से जागृत नये हिन्दोस्तान के नये मिजाज से एकस्वर है, जिसे विगत वैभव पर गर्व भी है और दुख भी है और नयी महानता की तलाश भी। गालिब ने राजनीतिक कविता नही की लेकिन नये युग के मिजाज को समो लिया। और जब नये तूफान से खेलनवाले आये तो उन्होने प्रलयंकारी तरंगो से लड़ने के लिए गालिब की शा अिरी से शक्ति प्राप्त की “गालिब की कला के कारण गजल प्रेम-वर्णन से बढ़कर जीवन-वर्णन बनती है और जीवन के विभिन्न युगो, करवटो और क्रातियो का साथ देने लगती है" ( आले अहमढ सुरूर)।