पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७७

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क्यों डरते हो, 'उश्शाक़ की बे हौसलगी से
याँ तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की

दश्ने ने कभी मुँह न लगाया हो जिंगर को
ख़ंजर ने कभी बात न पूछी हो गुलू की

सद हैफ वह नाकाम, कि इक 'अम्र से, ग़ालिब
हस्रत में रहे एक बुत-ए-'अरबदः जू की

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सीमाब पुश्त गर्मि-ए-आईनः दे है, हम
हैराँ किये हुये हैं दिल-ए-बेक़रार के

आग़ोश-ए-गुल कुशूदः बराये विदा'अ है
अय 'अन्दलीब, चल, कि चले दिन बहार के

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है वस्ल हिज्र, 'आलम-ए-तम्कीन-ओ-ज़ब्त में
मा'शूक़-ए-शोख़-ओ-'आशिक़-ए-दीवानः चाहिये

उस लब से मिल ही जायगा बोसः कभी तो, हाँ
शौक़-ए-फ़ुजूल-ओ-जुरअत-ए-रिन्दानः चाहिये