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तू वह बदख़ू, कि तहय्युर को तमाशा जाने
ग़म वह अफ़्सानः, कि आशुफ्तः बयानी माँगे

वह तप-ए-'अिश्क़-ए-तमन्ना है, कि फिर सूरत-ए-शम्'क
शो'लः ता नब्ज़-ए-जिगर रेशः दवानी माँगे

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गुलशन को तिरी सोह्बत, अज़ बसकि ख़ुश आई है
हर ग़ुंचे का गुल होना, आग़ोश कुशाई है

वाँ कुँग्गुर-ए-इस्तिग़ना, हर दम है बलन्दी पर
याँ नाले को और उल्टा, दा'वा-ए-रसाई है

अज़ बसकि सिखाता है ग़म, ज़ब्त के अन्दाज़े
जो दाग़ नज़र आया, इक चश्म नुमाई है

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जिस जख़्म की हो सकती हो तद्बीर, रफ़ू की
लिख दीजियो, यारब, उसे क़िस्मत में'अदू की

अच्छा है सर अँगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नज़र आती तो है, इक बूँद लहू की