पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७१

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न शो‘ले में यह करिश्मः न बर्क़ में यह अदा
कोई बताओ, कि वह शोख़-ए-तुन्द ख़ू क्या है

यह रश्क है, कि वह होता है हमसुख़न तुमसे
वगरनः ख़ौफ़-ए-बद आमोज़ि-ए-‘अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर, लहू से, पैराहन
हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तुजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के, हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

वह चीज़, जिसके लिये हमको हो, बिहिश्त ‘अज़ीज़
सिवाये बादः-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क बू क्या है

पियूँ शराब, अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
यह शीशः-ओ-क़दह-ओ-कूज़:-ो-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार, और अगर हो भी
तो किस उमीद प कहिये कि आरज़ू क्या है

हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगरनः शह्र में ग़ालिब की आबरू क्या है