पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६७

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खिज्र सुलताँ को रखे, ख़ालिक़-ए-अकबर सरसब्ज शाह के बारा में, यह ताजः निहाल अच्छा है हम को मालूम है, जन्नत की हक़ीक़त, लेकिन दिल के ख़ुश रखने को, ग़ालिब, यह ख़याल अच्छा है १७६ न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली, न सही इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो, तो यह भी न सही ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हस्रत-ए-दीदार तो है शौक, गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही मै परस्ताँ , खुम-ए-मै मुँह से लगाये ही बने एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी, न सही नफ़स-ए-कैस, कि है चश्म-ो-चरारा-ए-सहा गर नहीं शम-ए-सियहख़ानः-ए-लैला, न सही एक हँगामे प मौकूफ़, है घर की रौनक नौहः-ए-राम ही सही, नरमः-ए-शादी न सही न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवा गर नहीं हैं मिरे अश‘ार में मानी न सही