पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६४

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वह गुल जिस गुलसिताँ में जल्वः फ़रमाई करे, ग़ालिब
चिटकना ग़ुँचः-ए-गुल का, सदा-ए-ख़न्दः-ए-दिल है

१७३


पा ब दामन हो रहा हूँ, बसकि मैं सह्रा नवर्द
खार-ए-पा हैं, जौहर-ए-आईनः-ए-ज़ानू मुझे

देखना हालत मिरे दिल की, हमआग़ोशी के वक्त
है निगाह-ए-आश्ना, तेरा सर-ए-हर मू, मुझे

हूँ सरापा साज़-ए-आहँग-ए-शिकायत, कुछ न पूछ
है यही बेह्तर, कि लोगों में न छेड़े तू मुझे

१७४


जिस बज़्म में, तू नाज़ से, गुफ़्तार में आवे
जाँ, काल्बुद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे

साये की तरह साथ फिरें सर्व-ओ-सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से,जो गुलज़ार में आवे

तब नाज़-ए-गिराँ मायगि-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीदः-ए-ख़ूँबार में आवे