पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६०

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तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी, कि दहर में तेरे सिवा भी, हम प बहुत से सितम हुये लिखते रहे, जुनूं की हिकायात-ए-चू चकाँ हरचन्द इस में हाथ हमारे कलम हुये अल्लाह री तेरी तुन्दि-ए-खू, जिस के बीम से अज्जा-ए-नालः दिल में मिरे रिक-ए-हम हुये अहल ए-हवस की फ़तह है, तर्क-ए-जबर्द-ए-'निश्क्त जो पाँव उठ गये, वही उनके 'अलम हुये नाले 'अदम में चन्द हमारे सिपुर्द थे जो वाँ न खिंच सके, सो वह याँ अाके दम हुये छोड़ी, असद न हमने गदाई में दिल्लगी साइल हुये, तो 'आशिक़-ए-अहल-ए-करम हुये जो न नक्द-ए-दारा-ए-दिल की, करे शोलः पास्बानी तो फ़सुर्दगी निहाँ है, ब कमीन-ए- बेजबानी मुझे उस से क्या तवक्को अ, ब जमानः-ए-जवानी कभी कोदकी में जिसने, न सुनी मिरी कहानी