पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५९

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रग-ए-लैला को ख़ाक-ए-दश्त-ए-मजनूँ, रेशगी बख़्शे
अगर बोदे बजाये दानः देह्काँ, नोक नश्तर की

पर-ए-परवानः, शायद बादबान-ए-कश्ति-ए-मै था
हुई मज्लिस की गर्मी से रवानी दौर-ए-साग़र की

करूँ बेदाद-ए-ज़ौक़-ए-परफ़िशानी 'अर्ज़, क्या क़ुदरत
कि ताक़त उड़ गई, उड़ने से पहले, मेरे शहपर की

कहाँ तक रोऊँ उसके ख़ेमे के पीछे, क़यामत है
मिरी किस्मत में, यारब, क्या न थी दीवार पत्थर की

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बे ए'तिदालियों से, सुबुक सब में हम हुये
जितने ज़ियादः हो गये, उतने ही कम हुये

पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त, क़रीब आशियान के
उड़ने न पाये थे, कि गिरफ्तार हम हुये

हस्ती हमारी, अपनी फ़ना पर दलील है
याँ तक मिटे, कि आप हम अपनी क़सम हुये

सख्ती कशान-ए-अिश्क़ की, पूछे है क्या ख़बर
वह लोग रफ़्तः रफ़्तः सरापा अलम हुये