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फिर हुये हैं गवाह-ए-'अश्क़ तलब
अश्क बारी का हुक्म जारी है
दिल-ओ-मिशगाँ का जो मुकद्दमः था
आज फिर उसकी रूबकारी है
बेख़ुदी बे सबब नहीं, ग़ालिब
कुछ तो है, जिस की पर्दःदारी है
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जुनूँ तोहमत कश-ए-तस्कीं न हो, गर शाद्मानी की
नमक पाश-ए-खराश-ए-दिल है, लज्जत ज़िन्दगानी की
कशाकशहा-ए-हस्ती से करे क्या स'अ-ए-आज़ादी
हुई ज़ंजीर, मौज-ए-आब को फ़ुर्सत रवानी की
पस अज़ मुर्दन भी, दीवानः ज़ियारत गाह-ए-तिफ़्लाँ है
शरार-ए-सँग ने तुर्बत प मेरी गुल फ़िशानी की
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निकोहिश है सज़ा, फ़रियादि-ए-बेदाद-ए-दिलबर की
मबादा ख़न्दः-ए-दन्दाँ नुमा हो सुब्ह महशर की