पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१५२

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१६१ कोई दिन, गर जिन्दगानी और है अपने जी में हम ने ठानी और है आतश-ए-दोज़ख़ में, यह गर्मी, कहाँ सोज-ए-ग़म्हा-ए-निहानी और है बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें पर कुछ अबके सरगिरानी और है दे के ख़त, मुंह देखता है नामः बर कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है काते -ए-पा'मार, हैं अक्सर नुजूम वह बला-ए-आस्मानी और है हो चुकी , गालिब, बलायें सब तमाम एक मर्ग-ए-नागहानी और है १६२ कोई उम्मीद बर नहीं आती - कोई सूरत नजर नहीं आती