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कोई दिन, गर ज़िन्दगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है
आतश-ए-दोज़ख़ में, यह गर्मी, कहाँ
सोज़-ए-ग़म्हा-ए-निहानी और है
बारहा देखी हैं उनकी रँजिशें
पर कुछ अबके सरगिरानी और है
दे के ख़त, मुँह देखता है नामः बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क़ाते'-ए-आ'मार, हैं अक्सर नुजूम
वह बला-ए-आस्मानी और है
हो चुकी, ग़ालिब, बलायें सब तमाम
एक मर्ग-ए-नागहानी और है
१६२
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती