पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१४८

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निस्यः-ओ-नक़्द-ए-दो 'आलम की हक़ीक़त मा'लूम
ले लिया मुझ से, मिरी हिम्मत-ए-'आली ने मुझे

कस्रत आराइ-ए-वहदत, है परस्तारि-ए-वह्म
कर दिया काफ़िर, इन असनाम-ए-ख़याली ने मुझे

हवस-ए-गुल का तसव्वुर में भी खटका न रहा
'अजब आराम दिया, बेपर-ओ-बाली ने मुझे

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कार्गाह-ए-हस्ती में, लालः दाग़ सामाँ है
बर्क़-ए-खर्मन-ए-राहत, ख़ून-ए-गर्म-ए-देह्क़ाँ है

ग़ुँचः ता शिगुफ़्तनहा, बर्ग-ए-'आफ़ियत मा'लूम
बावुजूद-ए-दिलजम'अ, ख़्वाब-ए-गुल परीशाँ है

हम से रँज-ए-बेताबी किस तरह उठाया जाय
दाग़ पुश्त-ए-दस्त-ए-'अिज्ज़, शो'लः ख़स ब दन्दाँ है

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उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़:, ग़ालिब
हम बयाबाँ में हैं और घर में बहार आई है