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सर गश्तगी में, 'आलम-ए-हस्ती से यास है
तस्कीं को दे नवेद, कि मरने की आस है

लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारः की खबर
अबतक वह जानता है, कि मेरे ही पास है

कीजे बयाँ सुरूर-ए-तब-ए-ग़म कहाँ तलक
हर मू मिरे बदन प ज़बान-ए-सिपास है

है वह ग़ुरूर-ए-हुस्न से बेगानः-ए-वफ़ा
हरचन्द उसके पास दिल-ए-हक़ शनास है

पी, जिस क़दर मिले, शब-ए-मह्ताब में शराब
इस बलग़मी मिज़ाज को गर्मी ही रास है

हर इक मकान को है मकीं से शरफ, असद
मजनूँ जो मर गया है, तो जंगल उदास है

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गर ख़ामुशी से फ़ायदः, इखफा-ए-हाल है
ख़ुश हूँ, कि मेरी बात समझनी मुहाल है