पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३८

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१४१ - सर गश्तगी में, 'पालम-ए-हस्ती से यास है तस्की को दे नवेद, कि मरने की आस है लेता नहीं मिरे दिल-ए-आवारः की खबर अबतक वह जानता है, कि मेरे ही पास है कीजे बयाँ सुरूर-ए-तब-ए- ग़म कहाँ तलक हर मू मिरे बदन प जबान-ए-सिपास है है वह सुरूर-ए-हुस्न से बेगानः-ए-वफ़ा हरचन्द उसके पास दिल-ए-हक़ शनास है पी, जिस कदर मिले, शब-ए-महताब में शराब इस बलगमी मिजाज को गर्मी ही रास है हर इक मकान को है मकी से शरफ, असद मजनूँ जो मर गया है, तो जंगल उदास है १४२ गर ख़ामुशी से फ़ायदः, इखफा-ए-हाल है ख़ुश हूँ, कि मेरी बात समझनी मुहाल है