पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३६

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की उसने गर्म सीनः-ए-अहल-ए-हवस में जा
आवे न क्यों पसन्द, कि ठण्डा मकान है

क्या ख़ूब, तुमने ग़ैर को बोसः नहीं दिया
बस चुप रहो, हमारे भी मुँह में ज़बान है

बैठा है जो कि सायः-ए-दीवार-ए-यार में
फ़रमाँरवा -ए- किश्वर -ए- हिन्दोस्तान हैं

हस्ती का ए'तिबार भी ग़म ने मिटा दिया
किससे कहूँ कि दाग़-ए-जिगर का निशान है

है बारे ए'तिमाद-ए-वफ़ादारी इस क़दर
ग़ालिब, हम इसमें ख़ुश हैं, कि नामेह्रबान है

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दर्द से मेरे है तुझको बेक़रारी हाय हाय
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़्लत शि'आरी हाय हाय

तेरे दिल में गर, न था आशोब-ए-ग़म का हौसलः
तूने फिर क्यों की थी मेरी ग़मगुसारी हाय हाय

क्यों मिरी ग़मख़्वारी तुझको आया था ख़याल
दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्तदारी हाय हाय