पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३१

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दीवार, बार-ए-मिन्नत -ए-मजदूर से, है ख़म अय ख़ान्माँ ख़राब, न एहसाँ उठाइये या मेरे जख़्म-ए-रश्क को रुस्वा न कीजिये या पर्दः-ए-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ उठाइये मस्जिद के जेर-ए-सायः, खराबात चाहिये भौं पास आँख, निबल:-ए-हाजात चाहिये 'आशिक्क हुये हैं आप भी, इक और शख़्स पर आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिये दे दाद, अय फलक, दिल-ए-हसरत परस्त की हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ि-ए-माफ़ात चाहिये सीखे हैं महरुखों के लिये हम मुसव्विरी तक़रीब कुछ तो बह-ए-मुलाकात चाहिये मै से गरज नशात है किस रूसियाह को इक गूनः बेखुदी मुझे दिन रात चाहिये है रंग-ए-लाल:-ओ-गुल-ो-नसरी, जुदा जुदा हर रंग में बहार का इस्बात चाहिये