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अल्लह रे जक-ए-दश्त नवर्दी, कि बा'द-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद बख़ुद मिरे, अन्दर कफ़न के पाँव
है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक, कि हर तरफ़ उड़ते हुये उलझते हैं, मुर्रा-ए-चमन के पाव
शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं । दुखते हैं आज उस बुत-ए-नाजुक बदन के पाँव
गालिब, मिरे कलाम में क्योंकर मजा न हो पीता हूँ धोके ख़ुसरू-ए-शीरीं सुखन के पाँव
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वाँ उसको हौल-ए-दिल है, तो याँ मैं हूँ शर्मसार यानी यह मेरी अाह की तासीर से न हो
अपने को देखता नहीं, जौक़-ए-सितम तो देख आईनः ताकि दीदः-ए-नखचीर से न हो १२४
वाँ पहुँचकर जो ग़श आता पै-ए-हम है हम को सदरह आहँग-ए-ज़मी बोस-ए - कदम है हम को