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अल्लह रे ज़ेंक़-ए-दश्त नवर्दी, कि बा'द-ए-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद बख़ुद मिरे, अन्दर कफ़न के पाँव
है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक, कि हर तरफ़
उड़ते हुये उलझते हैं, मुर्ग़-ए-चमन के पाँव
शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं
दुखते हैं आज उस बुत-ए-नाज़ुक बदन के पाँव
ग़ालिब, मिरे कलाम में क्योंकर मज़ा न हो
पीता हूँ धोके ख़ुसरू-ए-शीरीं सुखन के पाँव
१२३
वाँ उसको हौल-ए-दिल है, तो याँ मैं हूँ शर्मसार
या'नी यह मेरी आह की तासीर से न हो
अपने को देखता नहीं, जौक़-ए-सितम तो देख
आईनः ताकि दीदः-ए-नख़चीर से न हो
१२४
वाँ पहुँचकर जो ग़श आता पै-ए-हम है हम को
सदरह आहँग-ए-ज़मीं बोस-ए-क़दम है हम को