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क़फ़स में हूँ, गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है, नवा सँजान-ए-गुलशन को

नहीं गर हमदमी आसाँ, न हो यह रश्क क्या कम है
न दी होती, ख़ुदाया, आरजु-ए-दोस्त दुश्मन को

न निकला आँख से तेरी इक आँसू, उस जराहत पर
किया सीने में जिसने ख़ूँचकाँ, मिश़गान-ए-सूज़न को

ख़ुदा शरमाये हाथों को, कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरीबाँ को, कभी जानाँ के दामन को

अभी हम क़त्लगह का देखना आसाँ समझते हैं
नहीं देखा शनावर जू-ए-ख़ूँ में तेरे तैसन को

हुआ चर्चा जो मेरे पाँव की ज़ंजीर बनने का
किया बेताब काँ में, जुँबिश-ए-जौहर ने आहन को

ख़ुशी क्या, खेत पर मेरे, अगर सौ बार अब आवे
समझता हूँ, कि ढूण्डे है अभी से बर्क ख़िरमन को

वफ़ादारी, बशर्त-ए-उस्तुवारी, अस्ल-ए-ईमाँ है
मरे बुतख़ाने में, तो का‘बे में गाड़ो बरह्मन को