बेजान पत्थरों के सीने में अनगढ़ी मूर्तियाँ नृत्य करने लगती हैं (फारसी ग़जल) आइनों के जौहर में पलके विकंपित हो उठती हैं (१८–४), मदिरा-पात्रों के हाथों की रेखाओं में रक्त दौड़ने लगता है (११२–१३), मा'शूक़ के वार्त्तालाप से दीवारों में जान पड़ जाती है (१७४) और कद की मोहकता देखकर सर्व-ओ-सनोवर छाया की भाँति साथ-साथ घूमने लगते हैं (१७४–२) फूलों की डालियाँ अँगड़ाई लेकर उन्मुख होने लगती हैं और फूल स्वयमेव गोश-ए-दस्तार के पास पहुँच जाते हैं (७३–६) बस एक बिजली और आग और पारे की सी हालत होती है (१६४–३) और उम्र व्याकुलता की राहों पर चलती है और माह व वर्ष की माप सूर्य की गर्दिश के बजाय बिजलियों की चमक और तड़प से की जाती है (१५३)। ग़ालिब के यहाँ कल्पना के छलावे भी इसी यथार्थ की चुग़ली खा रहे है। कल्पना की छलाँग कहने के लिये एक कलात्मक विशेषता है किन्तु वास्तव में यह छिपी हुई व्याकुलता का प्रकट रूप है। चूँकि वह बहुत सी बातें अनकही छोड़ देता है इसलिए शे'र दूरूह अवश्य हो जाता है लेकिन इससे शे'र का सौन्दर्य बढ़ जाता है और अर्थ का अँचल अधिक विस्तार धारण कर लेता है—
तू और आराइश-ए-खम-ए-काकुल
मैं और अंदेशःहा-ए-दूर-ओ-दराज़(७२–२)
यह हर्ष और आनंद बटोरने, और दुख झेलने और कामना की कैफियते जो सिमटकर कमान और गति की कल्पना और विचारों के छलावों में परिणत हो गई हैं, आकस्मिक चीज़ नहीं है। निश्चय ही इसमे ग़ालिब के स्वभाव के तीखेपन और सूफ़ियाना शा'अिरी की उन परम्पराओं का बड़ा हाथ है जो स्वस्थ हैं। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। ग़ालिब का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी यह तक़ाज़ा करता है कि वातावरण के प्रभावों से दृष्टिविमुख न हुआ जाय। दुनिया को "चेतना दर्पण" कहने वाला और उसके तमाशे पर जोर देने वाला शा'अिरी को काफ़ियः पैमाई (तुकबन्दी) के बजाय अर्थपूर्णता का दर्जा देनेवाला और लेखनी के कम्पन पर बुद्धि के बन्धन लगाने वाला (मुग़न्नी नामः) शा'अिर अपने वातावरण से अनभिज्ञ रह कर केवल अपने खून-ए-दिल के उछालने पर सन्तुष्ट नहीं होसकता था—
चाक मत कर जैब बे अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये[१९०–४]
जब वह कहता है कि अंजुमन-ए-आर्ज़ू (कामना की महाफिल) से बाहर साँस लेना भी हराम है (५७) तो यह केवल चन्द सिक्कों, चन्द प्यालों और चन्द चुम्बनों की आरज़ू नहीं है बल्कि एक अरचित-उद्यान की कामना है जिसकी कल्पना के आनन्द ने गीत छेड़ने पर मजबूर कर दिया है