पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११९

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बज़्म में उसके रूबरू, क्यों न ख़मोश बैठिये
उसकी तो ख़ामुशी में भी, है यही मुद्द'आ कि यों

मैंने कहा कि, बज़्म-ए-नाज़ चाहिये और ग़ैर से, तिही
सुन के सितम ज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया, कि यों

मुझसे कहा जो यार ने, जाते हैं होश किस तरह
देख के मेरी बेख़ुदी, चलने लगी हवा, कि यों

कब मुझे कू-ए-यार, में रहने की वज़्'अ याद थी
आइनःदार बन गई, हैरत-ए-नक़्श-ए-पा, कि यों

गर तिरे दिल में होखयाल, वस्ल में शौक़ का ज़वाल
मौज मुहीत-ए-आब में, मारे है दस्त-ओ-पा, कि यों

जो यह कहे, कि रेख़्तः क्योंकि हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ्तः-ए-ग़ालिब एक बार पढ़के उसे सुना, कि यों

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हसद से दिल अगर अफ़सुर्दः है, गर्म-ए-तमाशा हो
कि चश्म-ए-तँग, शायद, कसरत-ए-नज़्ज़ारः से वा हो

बक़द्र-ए-हसरत-ए-दिल, चाहिये ज़ौक़-ए-म'आसी भी
भरूँ यक गोशः-ए-दामन, गर आब-ए-हफ़्त दरिया हो