पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११६

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हुये उस मेहर वश के जल्व:-ए-तिम्साल के आगे
पर अफ़शाँ जौहर आईने में, मिस्ल-ए-ज़र्रः रौजन में

न जानें नेक हूँ या बद हूँ, पर सोहबत मुख़ालिफ़ है
जो गुल हूँ तो हूँ गुलख़न में, जो ख़स हूँ तो हूँ गुलशन में

हजारों दिल दिये, जोश-ए-जुनून-ए-'अिश्क ने मुझको
सियह होकर सुवैदा हो गया हर तरः लूँ तन में

असद, जिन्दानि-ए-तासीर-ए-उल्फ़तहा-ए-ख़बाँ हूँ
ख़म-ए-दस्त-ए-नवाजिश हो गया है तौक़ गर्दन में

मजे जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाये खून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर गुबार हुये पर, हवा उड़ा ले जाये
वगरनः ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

यह किस बिहिश्त शमाइल की आमद आमद है
कि गैर-ए-जल्वः-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रम आता
असर मिरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं