पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११

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(उन्माद) जो शौक की अंतिम मंजिल है उसको सदा उकसाता रहता है । उसे ज्ञात है कि शौक अत्यंत विनम्रता में भी मानव को गर्वोन्नत कर देता है और कण को मरुस्थल का विस्तार और बूंद को सागर का आवेग प्रदान करता है (४३-३)। इसलिए शौक और तलब (तृष्णा) की राह में वह एक क्षण के लिए भी निश्चित नहीं होना चाहता । मंजिल से कही अधिक रस मंजिल की जुस्तुजू (तलाश) में है । “जब मैं बिहिश्त (स्वर्ग) का तसव्वुर (कल्पना) करता हूँ और सोचता हूँ कि अगर मगफिरत (मुक्ति) होगई और एक कस्र (प्रासाद) मिला और एक हूर (अप्सरा) मिली अकामत (आवास) जाविदा (शाश्वत) है और इस एक नेकबख्त के साथ जिन्दगानी है इस तसव्वुर से जी घबराता है और कलेजा मुँह को आता है। हय, हय वह हूर अजीरन होजायगी। तबीयत क्यूँ न घबरायगी वही जमुर्रदी काख (पन्ने का घर) और वही तूबा (कल्पवृक्ष) की एक शाख" । (एक पत्र से उद्धृत)। और गालिब के उस्ताद ने युवावस्था के आरंभ में यह नुक्ता सिखा दिया था कि शकर का मजा चख लेना मगर मक्खी बन कर शहद पर कभी न बैठना नही तो उड़ने की शक्ति बाकी नही रहेगी। इसीलिए गालिब मंजिल का नही मंजिल के पथ का, तृप्ति का नहीं तृष्णा के रस का कवि है । प्यास बुझा लेना उसका उद्देश्य नही प्यास को बढ़ाना उसका आदर्श है। रश्क बर तश्न: -ए-तनहा रख-ए-वादी दारम् न बर आसूदः दिलान-ए-हरम-ओ-जमजम-ए-शा (ईर्ष्या मार्ग में अकेले भटकने वाले प्यासे से होती है न कि हरम-ओ- जमज्जम पर पहुंच कर तृप्त होजाने वालो से)। आरज़ के डंक का आनंद रहगुजारो के आनंद से परिचित कराता है और इस चीज ने गालिब की कविता को गति की भावना से भरपूर कर दिया है जिसका प्रकटीकरण मौज (तरंग) तूफ़ान, तलातुम (आवेग), शोला (ज्वाला), सीमाब (पारा), बर्क (बिजली) और परवाज (उडान) के शब्दो की बहुतायत से होता है। यह भाव रच-बस कर गालिब के सौन्दर्यबोध का महत्वपूर्ण अंग बन गया है। अत:एव गालिब का माशूक भी बर्क-ओ-शरर (बिजली और आग) है और गालिब उसकी गति का उपासक (६१-५ व १९९-५)। इसके साथ गालिब की गतिवान और नर्तित इमेजरी [IMAGERY] है जो चित्राकन की पराकाष्ठा है। जब वह अपनी अछूती उपमाओ और अनुपम रूपको का जादू जगाता है तो हर अक्षर नृत्य करने लगता है। स्थिर चित्र तरल बन जाते हैं । एकाकी विचार रंग और सुगंध का एक आकार बनकर सामने आता है। अरण्य गति के उताप से जलने लगते हैं (७०-२), बयाबान पथिक के कदमो के आगे-आगे भागने लगते है (१६१),