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समास ] श्रोताओं की स्तुति । कोई बुद्धि के सागर हैं और कोई शब्दरत्नों की खान हैं ॥ २॥ ये अनेक प्रकार के अर्थरूपी अमृत के भोगनेवाले हैं, ये मौका आजाने पर वक्ता' भी है और ये नाना संशयों के छेदनेवाले तया निश्चयी पुरुप हैं ॥ ३ ॥ इनकी धारणा, अर्थात् स्मरणशक्ति अपार है। ये ईश्वर के अवतार हैं या प्रत्यक्ष देव जैसे बैठे हों ॥ ४॥ या तो यह शान्तस्वरूप और सतोगुण- विशिष्ट ऋपीश्वरों की मंडली है, जिनके कारण सभामंडल में परम शोभा का रही है ॥ ५॥ इनके हृदय में परमात्मा विलस रहा है, मुख में सर- स्वती विलास कर रही है और साहित्य-वार्ता करने में ये वृहस्पति से जान पड़ते हैं ॥६॥ ये पवित्रता में वैश्वानर अर्थात् अग्नि-रूप है, ये स्फूर्ति- किरणों के सूर्य हैं । ज्ञातापन, अर्थात् जानकारी, में इनकी दृष्टि के सामने ब्रह्माण्ड कोई चीज नहीं है ॥७॥ ये अखंड सावधान हैं, इन्हें तीनों काल का ज्ञान है, ये सदा निरभिमान रहते हैं और आत्मज्ञानी है ॥ ८॥ ऐसा कुछ भी नहीं बचा जो इनकी दृष्टि के आगे न पाया हो । इनके मन ने पदार्थमात्र को लक्षित कर लिया है ॥६जो कुछ बतलाना चाहते हैं वह इन्हें पहले ही से मालूम है । अब इनके सामने अपने ज्ञातापन के अभिमान से फिर क्या कहें ? ॥१०॥ परन्तु ये गुणग्रहण करनेवाले हैं, इसी लिए निश्शंक होकर बोलता हूं । भाग्यवान् पुरुप क्या सेवन नहीं करते ? ॥११॥ वे (भाग्यवान् ) सदा दिव्य अन्नों का सेवन करते हैं; परन्तु मन बदलने के लिए रूखा अन्न भी खा लेते हैं। उसी प्रकार ये मेरे प्राकृत भाषा के वचन (रूखे अन्न की तरह ) भी सजन श्रोतागण स्वीकार कर लैगे ॥ १२ ॥ अपनी शक्ति के अनुसार, भावपूर्वक, परमेश्वर की उपासना की जाती है; परन्तु यह कहीं नहीं कहा है कि बिलकुल परमात्मा की पूजा ही न करे ॥ १३ ॥ वैसाही में एक वाग्दुर्बल (अर्थात् बोलने की पूरी शक्ति न रखनेवाला,) हूं और श्रोता सचमुच परमेश्वर ही हैं । अब, अपनी वरती हुई वाचा से इनकी उपासना (पूजा) करना चाहता हूँ ॥ १४॥ विद्वत्ता, कला, चतुरता, काव्य-प्रवन्ध की शक्ति, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और वचन-मधुरता आदि कुछ मुझमें नहीं है ॥ १५ ॥ ऐसा मेरे वाग्विलास का हाल है। अस्तु, अब मैं प्रसन्नतापूर्वक बोलता हूं; क्योंकि जगदीश भाव का ही भूखा है ॥ १६ ॥ आप श्रोता लोग प्रत्यक्ष जगदीश की मूर्ति ही हो। आपके सामने मेरी विद्वत्ता कितनी है ? मैं बुद्धिहीन, अल्पमति आपके आगे दिठाई करता हूं ॥ १७ ॥ इस संसार में समर्थ का पुत्र चाहे मूर्ख ही क्यों न हो; तथापि अपने पिता के आगे धृष्टता कर-