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समास ५] सन्त-स्तुति। ६ लक्ष्मी नाशवान् है । जिसके द्वारे मोक्षलक्ष्मी खड़ी रहती है उसे इस नाशवान् लक्ष्मी से क्या काम ? ॥ २७ ॥ स्वर्गलोक और इन्द्रसम्पत्ति की कालान्तर में विटंबना हो जाती है। परन्तु सद्गुरुकृपा अचल है ॥ २८ ॥ हरि, हर और ब्रह्मा आदि सब नाश हो जाते हैं । परन्तु सर्वदा अवि- नाश अर्थात् कभी न नाश होनेवाला केवल एक सद्गुरुपद ही है ॥ २६ ॥ उससे किसकी उपमा दी जाय ? सारी सृष्टि तो नाशवंत है। वहां पंच- भौतिक धरा-उठाई चलती ही नहीं ॥३०॥ इसी लिए सद्गुरु का वर्णन नहीं हो सकता । ये, लो, बल, सद्गुरु का वर्णन नहीं हो सकता"-यही कहना मेरा सद्गुरु-वर्णन है । अन्तरस्थिति, अर्थात् भीतरी दशा, की पह. चान अन्तर्निष्ठ, अर्थात् अनुभवी ही जानते हैं ॥ ३१ ॥ 14 पाँचवाँ समास-सन्त-स्तुति । ॥ श्रीराम ।। अब संतसजनों की वन्दना करूंगा, जो परमार्थ के अधिष्ठान, अर्थात् आश्रय हैं और जिनके द्वारा गुहा ज्ञान मनुप्यों में प्रगट होता है ॥ १॥ जो वस्तु, (अर्थात् ब्रह्म,) परम दुर्लभ है, जो अलभ्य, अर्थात् नहीं पाने योग्य, है वही संतसंग से सुलभ हो जाती है ॥ २॥ वह वस्तु (ब्रह्म ) प्रगट ही रहती है, पर देखने पर किसीको नहीं देख पड़ती। नाना- प्रकार के साधनों और परिश्रम करने पर भी नहीं मिलती॥३॥ वहां परीक्षावान् धोखा खा चुके, इतनाही नहीं किन्तु पाखोंवाले अंधे होगये और निजवस्तु (परब्रह्म) को देखतेही देखते स्वयं भी न रहे ॥ ४ ॥ जो दीपक से भी नहीं देख पड़ती, नाना प्रकार के प्रकाशों में जिसका पता नहीं लगता, नेत्रों में अंजन लगाने से भी जो दृष्टि के सन्मुख नहीं आती ॥ ५॥ सोलह कला बाला पूर्ण चन्द्र और कलाराशि तीव्र सूर्य भी जिसे नहीं दिखा सकता ॥ ६ ॥ जिस सूर्य के प्रकाश से ऊन का रोवां भी देख पड़ता है, अणुरेणु श्रादि अनेक सूक्ष्म पदार्थों का भी जिसके द्वारा भास होता है ॥ ७ ॥ चिरी हुई वाल की नोक को भी जो सूर्य-प्रकाश दिखा सकता है; वह भी वस्तु को नहीं दिखा सकता; परन्तु संतसज्जनों की कृपा से वही वस्तु साधकों को प्राप्त होती है ॥८॥ जहां (परब्रह्म के विषय में ) सब आक्षेप समाप्त हो जाते हैं, जहां प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं, जिस निजवस्तु की तर्कना करते करते तर्क मन्द हो जाते हैं ॥ ६ ॥ जहां