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दासबोध में स्वीकार की गई विवेचन-पद्धति । ." इस पद्धति को, समाज के यत्न का विचार करने की " शारीरिक पद्धति" नाम दिया गया है । ( ३ ) कोई कोई तत्त्वज्ञ समाज के रूपों अथवा चरित्रों के लक्षणों का ही निश्चय करते हैं; फिर समाज चाहे कोई भी रूप ले या चाहे जो काम करे । इस प्रकार की पद्धति को लाक्षणिक पद्धति " कह सकते हैं। (४) इन तीन पद्धतियों के सिवा एक और भी चौथी पद्धति है। इसमें समाज के चरित्र, शरीर अथवा लक्षणों की ओर पूरी तौर से ध्यान देने का नियम नहीं है, किन्तु इस पद्धति में यह विचार किया जाता है कि जिस समाज के ये चरित्र, शरीर अथवा लक्षण हैं उसके चालक की दृष्टि किस ओर है। इस पद्धति को " आत्मिक अथवा "ताविक " किंवा " वैवेषिक -विवेक की- पद्धति कहते हैं। इस पद्धति में समाज के मुख्य चालक आत्मा के यत्न का विचार किया जाता है। इस पद्धति में पहले आत्मा का स्वभाव, रूप, कार्य और अन्तिम हेतु आदि प्रश्नों की चर्चा करके, फिर उससे, इस बात का विवेचन किया जाता है कि समाज किस ओर जा रहा है। इन चार पद्धतियों को योरय के विद्वान् क्रमशः (1) Historical (2) Morphological (3) Physiological (4) Psychological al Philosophical star Rational trad हैं । अव हम इस बात का विचार करेंगे कि इन चारों पद्धतियों में से समर्थ ने किस पद्धति को स्वीकार किया है। १६--दासबोध में स्वीकार की गई विवेचन-पद्धति । इन पद्धतियों में से चौथी आत्मिक या तात्विक अथवा वैवेविक, पद्धति का अव- लम्बन श्रीसमर्थ ने अपने इस ग्रन्थ में किया है। योरप में भी इलेगल, हेगल आदि कई तत्ववेत्ताओं ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है। यह बात प्रकट ही है कि जो जो पुरुष तत्वज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान के पीछे लगे हैं, वे इस पद्धति का अवलम्वन करेंगे ही । जव मनुष्य जाति सब प्रकार से आत्मा ही पर निर्भर है, तब फिर उसकी चाहे जिस हल-बल पर विचार किया जाय; वह आत्मा की ही दृष्टि से करना उचित्त भी है। यदि वह विचार किसी अन्य दृष्टि से किया जायगा, तो अवश्य एकदेशीय होगा। अन्य दृष्टि से विचार करना भी कई प्रकार से उपयोगी है; परन्तु यदि मानवी जाति के इस विस्तृत यत्न के अन्तिम हेतु का विचार करना है, तो उस आत्मिक अथवा तात्विक पद्धति का ही खीकार करना पड़ेगा। पहली तीन पद्धतियों का अवलम्बन करनेवाले शास्त्रज्ञों के मत से सुख-बुद्धि और राज-पुरुपों का सुख-साधन आदि हेतु समाज अथवा राज्य के यत्न के अन्तिम हेतु हैं। इनके सिवा लली के समान इतिहासज्ञ और राजनीतिज्ञ यह भी प्रतिपादन करते हैं कि राष्ट्रीय गुणों की पूर्ण वृद्धि करना, समाज अथवा राज्य- स्थापन का अन्तिम और मुख्य उद्देश है। परन्तु इस प्रकार के शास्त्रज्ञ इस बात की परीक्षा नहीं कर सकते हैं कि इतना बड़ा और अन्याहत प्रयत्न करने में सम्पूर्ण मानव- .