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दासबोध की आलोचना । द्वारा सुधर सकते हैं । परन्तु “ ज्ञान-लवदुर्विदग्ध " अहम्मन्य पण्डितों का एक वर्ग होता है, जिसे समर्थ श्रीरामदासस्वामी ' पढतमूल' कहते हैं, उनकी नीति कैसे सुधारी जाय ? भर्तृहरि ने कहा है:- ज्ञानलव दुर्विग्धं ब्रह्मापि तन्नरं न रजयति । अर्थः-अद्ध-दग्ध जड़ जीव कहँ विधिहु न रिझवन जाय । प्रतापसिंह । सचमुच इन पढतमूखों को सुधारना बड़ी टेढ़ी खीर है । ये लेग बहुश्रुत और व्युत्पन्न होते हैं; ब्रह्मज्ञान की बड़ी बड़ी बातें बतलाते हैं; परन्तु काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, दम्भ, दुराशा और अहंक.र के चकार में ऐसे पड़े रहते हैं कि वे अपने ही धर्म की निन्दा करते हैं; भक्तिमार्ग का उच्छेद करते हैं: भूतदया को भूल जाते हैं। वे स्वयं ऐसा करते हैं और अज्ञ जनों से भी करवाते हैं। ऐसे पढ़नमूखी को भी नीति की शिक्षा देना, सब समाज के उद्धार की दृष्टि से, अत्यन्त आवश्यक है । समर्थ कहते हैं कि इस प्रकार मूर्ख और पढ़तमूर्ख देनों की नीति की शिक्षा देना और उस शिक्षा के लिए संस्था स्थापित करना परमार्थ-प्राप्ति या समाज के उद्धार का पहला उपाय है। २-धर्मस्थापना। धर्म से तात्पर्य, यहाँ परमेश्वर की उपासना या भक्ति से है । भक्ति नव प्रकार की है। इनमें नी भक्ति आत्म-निवेदन श्रेष्ठ है; अर्थात् यही श्रेष्ठ धर्म है। अन्य आठ प्रकार की भक्तियों से, जीवात्मा और परमात्मा में भेद-भाव रह जाने की सम्भावना है-~-अर्थात्, भत्ता और ईश्वर में द्वैत की कल्पना कदाचित् रह सकती है; पर आत्मनिवेदन के द्वारा भक्त के मन विभक्ति का भाव नहीं रहता। इससे अभिन्नता, अनन्यता था ऐक्यवृत्ति होती है । यह उपासना प्रत्यक्ष आत्मज्ञान ही है। समर्थ के मतानुसार उपासना और ज्ञान भिन्न नहीं | उपासना ज्ञानस्वरूप है-उपासना ही ज्ञान है । समर्थ ने अपने इस ग्रन्थ के अनेक स्थलों में उपासना का माहात्म्य गाया है। समर्थ अभिमान और विश्वासपूर्वक कहते हैं कि:- उपासना सर्वव्यापक है; अ.त्माराम कहाँ नहीं है ? ठौर ठौर में राम भरा हुआ है। ऐसी मेरी उपासना है-वह कल्पनातीत है। वह निरञ्जन ( परब्रह्म ) के पास पहुँचा देती है " । अध्यात्मविद्या का श्रवण, देवपूजन, भजन, कीर्तन, सन्ध्यादि ब्रह्मकर्म, इन सव का समावेश उपासना में होता है। सारांश, कर्म और ज्ञान का समावेश उपासना- मार्ग अर्थात् भक्ति-मार्ग में हो सकता है। भक्ति-मार्ग में प्रतिमापूजन---मूर्तिपूजा--कही है। परन्तु,' स्मरण रहै कि प्रतिमा या मूर्ति, परमेश्वर का प्रतिनिधि-रूप है—खयं उस • (प्रतिमा ) का रूप या नाम परमेश्वर नहीं है। इस बात की चर्चा समर्थ ने ठौर और में की है। जिस परमेश्वर की प्रतिमा हम पूजते हैं, उसको पहचानना चाहिए:- “ नाना देवों की नाना प्रतिमायें लेग प्रेमपूर्वक पूजते हैं; पर वारतव में यह पहचानना चाहिए कि जिसकी प्रतिमा है वह परमात्मा कैसा है---पहचान कर भजन करना चाहिए। 6