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लोकोद्धार के तीन उपाय । समर्थ ने समाज के उद्धार के--लोकोद्धार के-तीन उपाय बताये हैं। (१) नीतिस्थापना;. (२) धर्मस्थापना और (३) राज्यस्थापना । हरि कथा निरूपण | नेमस्तपणे राजकारण । वयाचे लक्षण । तेही असाचे॥४॥ - समर्थ ने अपनी भाषा में इनके.ये नाम रक्खे हैं:---वर्ताव का लक्षण या सद्वर्तन; (२) हरिकथा निरूपण और (३) राजकारण । इन तीन उपायों से ही समाज स्वतन्त्र रहता है। अथवा परतन्त्र समाज का उद्धार करने के लिए--उसको स्वतन्न करने के लिए--सिद्धों को उन्हीं तीन उपायों का अवलम्बन करना चाहिए। यदि यह अभिलापा और आव- इयकता है कि समाज मुक्त होवे, स्वतन्त्र होवे, परमार्थ का उपभोग करे, तो सिद्ध और साधकों को, मुमुक्षु---स्वातंत्र्येच्छुक लोगों की सहायता से, इन्हीं तीन उपायों को योजना- स्थापना करनी चाहिए। ऐसा न समझिए कि इस काम में सिद्ध और साधकों को कोई लाभ नहीं है। इस कार्य से समाज का हित तो होगा ही; पर सिद्ध और साधकों का भी हित है। समाज को दुःखित, पीडित, नस्त, विपन-वद्ध देख कर सिद्धों का अन्तःकरण भी दुःखित होता है। तात्पर्य, समाज के दुख से सिद्धों को भी खेद होता है ! अतएव समाज के दुःख विमोचन करने से समाज को बन्धनमुक्त करने से सिद्ध पुरुपों को भी सुख होता.है । इसलिए समाज का उद्धार करना सिद्धों का खतःसिद्ध कर्तव्य है। अब इन तीन उपायों का पृथक पृथक विवेचन करेंगे। १--नीति-स्थापना । उपर्युक्त उपायों में से प्रथम नीति को स्थापना होनी चाहिए। वद्धजन-समुदाय में नीति का अत्यन्त लोप हो जाता है । स्वधर्म, भूतदया और आत्मज्ञान को तो वे भूले रहते ही है; परन्तु निन्दा, द्वेष, अनीति, अनाचार, आलस, कपट, कलह, यूरता, कातरता, पाखण्ड, पाप, दुराशा, आदि दुर्गुणों का वज़ा विकट भावरण उन लोगों पर छाया रहता है। इस आवरण को निकालना-इन दुर्गुणों को दूर करना—नीति का काम है । नीति की स्थापना से मलिन वृत्तियाँ विमल हो जाती हैं और मनुष्य अपने सुधार के-अपने उद्धार के—मार्ग में लग जाता है।जव सिद्ध पुरुषों के उपदेश से—सद्गुरु के उप- देश से-~-यह मालूम हो जाता है कि माया के सत्व, रज, तम, तीन गुणों में से कौन ग्राह्य और कौन ल्याज्य है; तव ऐसा समझिए कि उद्धार का बहुत बड़ा काम हो चुका । मनुष्य को जिधर झुकाओ उधर झुक सकता है। उसे नीति की ओर लगाओ, तो उधर लग जायगा; अनीति की ओर लगाओ तो वह उसी में फंस जायगा । इस प्रकार, नर- देह के विषय में प्रस्तावना करके समर्थ ने चतुर और मूर्ख, कुविद्या और सुविद्या, सत्त्वगुण और तमोगुण-का निरूपण दु. २, स०.२ में किया है। जो अन हैं, वे नीति जानते ही नहीं; इसलिए अदि वे कुलक्षणी हों तो कोई आश्चर्य नहीं । ऐसे लोग उपदेश- .