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दासबोध की आलोचना । आत्मयास शरीरयोगें । उद्वेग चिन्ता करणे लागे । शरीरयोग मात्मा जगे । ह तो प्रकटचि आहे ॥१॥ देहीं सुख दुख मोजा । तो येक आत्माचि पाहाता । आत्म्यांविण देहे वृथा । म. होये ॥ २६ ॥ अर्थात् , आत्मा को शरीर के योग से उद्वेग और चिन्ता आदि करनी पड़ती है । यह तो प्रकट ही है कि शरीर के योग से आत्मा है---शरीर न रहे, तो आत्मा भी चला जाय । देह में सुख-दुख भोगनेवाला आत्मा ही है । आत्मा न रहे तो शरीर भी मुर्दा है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सहारे हैं. दोनों एक दूसरे से बद्ध हैं। --नर-देही जीव या बद्ध पाणी । आत्मा को माया का बन्धन होना ही नर-देह का जन्म है। ज्यों ही स्वतन्त्र आत्मा नर- देह को प्राप्त होता है, त्योंही उसके सांसारिक सुख-दुःख और तापत्रय का आरम्भ हो जाता । तापत्रय का मूल कारण त्रिगुणात्मक माया ही है । स्वतन्त्र आत्मा नर-देह में आकर सत्त्व, रज, तम के न्यूनाधिक मिश्रण से श्रान्त होकर अहंकार-वश हो जाता है। मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, मैंने यह किया, मैं चतुर, पण्डित, कार्यकर्ता हूँ, मेरा घर, मेरा कुटुम्ब, मेरा धन-इस प्रकार की अहङ्कारी कल्पनाओं में फँस कर संसार के सुख-दुःख में प्राणी मग्न हो जाता है । माया के मोह में धा रहने के कारण उसकी ज्ञान-दृष्टि धुंधली हो जाती है । वह अपने आपको भूल जाता है! अज्ञानवश कहने लगता है कि मैं कौन हूँ? इस प्रकार नरजन्म पाकर जव स्वतन्त्र आत्मा अपने तई आप ही भूल जाता है-अपने निज- स्वरूप को भूल जाता है--तब वह संसार में मूर्ख, पढतमूर्ख और कुलक्षणी बन जाता है। जब एक बार अज्ञान और मूर्खता रोम रोम में समा जाती है, तव उसके दुःखों की गिनती कौन कर सकता है ? वह दूसरों को सताता है, तंग करता है, दुःख देता है और आप भी, उसी प्रकार पीड़ित होता है । दूसरों पर जुल्म करता है; दूसरों का धन छीन लेता है; लोगों को स्वतन्त्रता हरण कर लेता है और स्वयं भी दरिद्र तथा परतन्त्र होता है। इतना होते हुए भी उसकी समझ में यह नहीं आता कि ऐसा क्यों होता है---दुःख का कारण क्या है--दुःखविमोचन. क्यों नहीं होता-दुःख ही सुख क्यों मालूम होता है । माया के कठिन फन्दे में पड़ कर बेचारा प्राणी घबरा जाता है । इसके छक्के छूट जाते हैं। ऐसी दशा में के.ई कोई तो इस नर-देह की ही निन्दा और तिरस्कार करने लगते हैं। कहते हैं कि नर- देह खोटी है इसके कारण हमको दुःखित होना पड़ा। वे यह भूल जाते हैं कि सत्त्व- रज-तमः, तीनों गुणों में से केवल रज और तम के अतिशय संसर्ग से ही ऐसी दुर्दशा होती है ! नर-देह एक विलक्षण शक्ति है । उसका उपयोग चाहे भला करो चाहे बुरा । दुरुपयोग करनेवाले की दुर्गति और सदुपयोग करनेवाले की सद्गति होती है । “जो नर करनी करे, तो नर का नारायण होय "जो कहावत है, वह विलकुल सच है। पर वे इस सिद्धान्त को -