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आत्मा और देह : - के दशक ५ समास में इसी ज्ञान का विवरण किया गया है-1. शुद्ध, विमल ज्ञान को ही स्वरूप ज्ञान अनुभव या विज्ञान--कहते हैं। यह ज्ञान ' पदार्थ-विज्ञान' से भिन्न है। पदार्थ-विज्ञान को समर्थ ने 'बहुधा ज्ञान ' कहा है। उसका वर्णन द० ५ स. ६ में किया गया है। जिसे हम लोग साजकल शास्त्र या विज्ञान ( Science ) कहते हैं। उसका समावेश इसी बहुधा ज्ञान में होता है । पशुज्ञान, रोगज्ञान, ओषधिज्ञान, मंत्रज्ञान, धातुज्ञान, शास्त्रज्ञान, गतिज्ञान, तर्कज्ञान, शब्दज्ञान और अन्तर्ज्ञान आदि सब प्रकार के पदार्थज्ञान का इसी बहुधा ज्ञान में समावेश होता है । यह सारा ज्ञान मायोत्पादित दृश्य ( जड़ और अशावत) पदार्थों का वर्गीकरण है । यह शुद्ध विमल ज्ञान नहीं है. यह तत्त्वज्ञान नहीं है। यह अविद्या है-माया है---अज्ञान है । समर्थ इसी बहुधा ज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं। बहुत प्रकाराची ज्ञाने । सांगों जातां असाधारणें । सायोज्य प्राप्ति होय जेणें । ते ज्ञान वेगळे ॥ ३७॥ ये बहुत प्रकार के ज्ञान , कहाँ तक बतलाये जायँ, पर जिस ज्ञान से सायुज्य मुक्ति. मिलती है---पूर्ण स्वतन्त्रता मिलती है-वह ज्ञान अलग है । इस अनित्य दृश्य के परे जो ज्ञान है, उसीको आत्मज्ञान कहते हैं, । आत्मा--ब्रह्मांश:-निस और एक है। उसके विषय का जो ज्ञान है, वही ' ज्ञान' है । दृश्य पदार्थ ( माया का पसारा ) अनित्य और अनेक है। उसके सम्बन्ध का जो ज्ञान है, वही बहुधा ज्ञान है । क्षेत्री और क्षेत्र, द्रष्टा और दृश्य, नित्य और अनित्य-इन सब के सम्बन्ध का जो विवेक है, वही सब ज्ञान का सार है। ६--आत्मा और देह । क्षेत्री, दृष्टा अथवा आत्मा, सत्, शाश्वत, निरुपाधि और निर्विकार है। क्षेत्र, दृश्य अथवा देह, असत् , अशाश्वत् , सोपाधि और सविकार है । आत्मा सूक्ष्म और देह स्थूल है । आत्मा स्वयम्भू और देह परभू है । आत्मा ब्रह्म का अंश है और. देह माया का अंश है। जिस तरह माया का नाश होता है और ब्रह्म अविनाशी है, उसी तरह देह नश्वर और आत्मा अमर है। इस प्रकार आत्मा-देह--ब्रह्म-माया--नित्य और अनित्य का अखंड भेद है। सारांश, आत्मा या ब्रह्म स्वतन्त्र और स्वाधीन है; माया अथवा देह परतन्त्र और पराधीन है। यही एक मुख्य भेद है । जब इस स्वतन्त्र आत्मा का परतन्त्र माया से संयोग होता है जब आत्मा पर माया का लेप चढ़ता है, अथवा जब, आत्मा का इस देह से , सम्बन्ध होता है तब वही देही' या 'जीव' भी कहलाने लगता है। 'जीव' होकर आत्मा सुख, दुःख, लाभ और हानि आदि द्वन्द्वों का भोक्ता बन जाता है । तात्पर्य, स्वतन्त आत्मा देह या माया के संसर्ग से परतन्त्र या बद्ध हो जाता है। श्रीसमर्थ ने दशक १३ स. ९ में इसीका विवेचन किया है। वे कहते हैं :- ।