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समास १०] विवेक का बर्ताव। ७७ दसवाँ समास-विवेक का वर्ताव । ॥ श्रीराम ॥ जो अखण्ड रीति से नाना चेठाएं किया करता है, जिसको धारणा- शधि श्रखण्ड होती है और राजनैतिक दाव-पेचों को सदा मन में सोचा करता है। ॥ वह सारे संसार के उत्तम गुणों का निरूपण करते रहता है और एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोता ॥ २॥ वह शास्त्राधार से नाना प्रकार की वक्तृताओं के द्वारा शंका-समाधान किया करता है:सत्य मृट का निर्णय करता है और सवा चर्चा करते रहता है ॥ ३ ॥ उसे भन्तिमार्ग विशदरूप से मालूम होता है, उपासनामार्ग का वह आकलन करता है, और अतःकरण में ज्ञान-विचार का मनन किया करता है ॥ ४॥ वैराग्य उसे बहुत अच्छा लगता है, उदासवृत्ति उसे बहुत प्रिय होती है; वह विस्तृत उपाधि में पड़ता है; पर उससे अलिप्त रहता है ॥ ५ ॥ अनेक प्रबन्ध उसे कंठान रहते हैं, प्रश्नों के उत्तर समर्पक देता है और उचित भाषण से सब के अन्तःकरण शीतल करता है॥ ६॥ लेगों का उस पर बहुत प्रेम होना है। उसके सामने किसी को कुछ भी नहीं चलती। उसके पास अनेक लोग आते हैं। पर उसके भीतरी स्वरूप का कोई अनुमान नहीं कर सकता ॥ ७ ॥ उपासना को आगे करके वह सारे देश को व्याप्त कर लेता है और पृथ्वी भर के सब लोग उसे जानते हैं ॥ ८ ॥ जानते तो सब हैं; पर वह मिलता किसीको नहीं। लोगों को यह भी नहीं मालूम होता कि वह क्या करता है ! अनेक देशों के नाना प्रकार के लोग उसे ढूँढ़ते फिरते हैं। उन सबों के मन वह अपने हाथ में रखता है, उनके मन को विवेक और विचार से भरता है और अनिश्चित अन्तःकरणों को मनन की ओर लगाता ॥१०॥ यह नहीं मालूम होता कि, उसने कितने लोग इकट्ठा किये हैं-कितना समुदाय उसके पास है-सब लोगों को वह श्रवण-मनन में लगाता है ॥ ११ ॥ अपने समाज को समझाते रहता है, गद्य-पद्य वत- लाते रहता है और सदा दूसरों का मन सँभालता है ॥ १२ ॥ इस प्रकार जो अखण्ड रीति से विवेक का वर्ताव करता रहता है और सदा सावधान रहता है उसका कोई कुछ नहीं कर सकता ॥ १३ ॥ जितना कुछ अपने को मालूम हो उतना सब धीरे धीरे लोगों को सिखला देना चाहिए । इस प्रकार बहुत लोगों को चतुर बना डालना चाहिए ॥ १४ ॥ नाना प्रकार से सिखाना चाहिए, अड़चनों को समझा देना चाहिए