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समास 10] श्रवण-विक्षेप। ४५७ करते हैं। पर मन में दूसरे ही विचार आते हैं। मन में जो कल्पनाएं आती हैं उनका विस्तार का तक बतलाया जाय ? ॥ १५ ॥ सुनी हुई बातों का जन मनन किया जाता है तभी कुछ मतलब निकलता है ॥१६॥ । मन दिखता थोड़े ही है जो उसे पकड़ लें! इस लिए प्रत्येक को अपना अपना मन रोकना चाहिए और रोक कर विवेक से उसे अर्थ में प्रविष्ट करना चाहिए ॥ १७ ॥ निरूपण में बहुत भोजन करके जो वैठता है वह बैठते ही प्यास से व्याकुल होता है ॥ १८ ॥ ऐसा पुरुप तुरंत ही पानी मंगाता है और "घट-घट-घट-घट" बहुत सा पी लेता है। इस कारण जी मतलाता है और वह उठ जाता है ॥ १६ ॥ खट्टी डकारें और हुचकियां आती हैं और यदि कहीं बायु सर गई तो फिर कुछ पूछिये ही नहीं ! अनेक लोगों को बार बार लघुशंका के लिए उठना पड़ता है ॥ २० ॥ कोई दिशा के कारण घवड़ा जाता है और सब छोड़ कर निरूपण के समय भग खड़ा होता है ॥ २१ ॥ किसी किसी का मन दृष्टान्त की किली अपूर्व बात ही में लगा रहता है और आगे की वातें वह सुन ही नहीं पाता ॥ २२ ॥ कोई ज्यों ही निरूपण में आकर बैठता है त्यों ही उसके बिच्छू टाँच देता है। ऐसी दशा में कहां का निरूपण ? वह विचारा व्याकुल हो जाता है ॥ २३ ॥ किसीके पेट में पीड़ा उठती है, पीठ में चिक जाती है अथवा दाद, खाज, फोड़ा आदि रोगों के कारण वैठा नहीं जाता ॥ २४ ॥ कोई पिस्सू के काटने से दुश्चित्त हो जाता है और कोई किसी गड़बड़ को सुन कर वहीं दौड़ जाता है ॥२५॥ कोई कोई विषयी लोग कथा सुनते समय स्त्रियों ही की ओर देखा करते हैं । चोर लोग पादत्राण चुरा ले जाते हैं ।। २६ ॥ कभी कभी 'हाँ' 'नहीं' का वादविवाद आ पड़ने पर भी बहुत खेद होता है ।। २७ ।। कोई कोई निरूपण में बैठ कर खूब बातें किया करते हैं। हरिदास ( कीर्तनकार ) लोग पेट के लिए रे-रे' करते हैं ॥ २८ ॥ बहुत शाता यदि जमा हो जाते हैं तो एक के बाद एक बोलने लगता है। वहां श्रोता लोगों का प्राशय एक ही ओर रह जाता है ॥२६॥ “मेरा है, तेरा नहीं" ऐसा कहने की जिसे सदा आदत है वह न्याय-नीति को छोड़ कर अन्याय की ओर दौड़ता है ।। ३० ।। कोई अपने वक्षप्पन के लिए वाच्य अवाच्य बोलने लगता है। जिसमें न्याय नहीं है उसे अन्त में परम अन्यायो कहें ही गे॥ ३१॥ हम नहीं कह सकते कि, जो श्रोता लोग अभिमान में श्राकर संतप्त हो जाते हैं उन्हें सच्चे कहें या-झूठे ॥३२॥ अतएव जो विचक्षण और बुद्धिमान होते हैं वे पहले ही अन जानपन ५८