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४४४ दासबोध। [ दशक १८ सव ॥२४॥परमेश्वर ने जो कुछ निर्माण किया है वह सब अखंड रीति से दृष्टि के सामने रहता है । परन्तु विवेकी लोगों को चाहिए कि, वे वार वार विचार करके उसे समझ लें ॥ २५ ॥ जितना कुछ निर्माण हुआ है, जगदीश्वर ने निर्मित किया है । पहले निर्माण-दृश्य पदार्थ-अलग करना चाहिए (और फिर ईश्वर-स्वरूप को देखना चाहिए ) ॥ २६ ॥ वह सब को निर्मित करता है; पर स्वयं वह, देखने से दिखता नहीं, इस लिए उसे विवेकबल से देखते रहना चाहिए ॥ २७ ॥ उसका अखंड ध्यान लगने से, वह कृपा करके दर्शन देता है । सदा उसीके अंश से सम्भापण करना चाहिए ॥ २८ ॥ जो ध्यान नहीं धरता वह अभक्त है, जो ध्यान धरता है वह भक्त है । वह (परमात्माराम) भक्तों को संसार से मुक्त करता है ॥ २६ ॥ उपासना समाप्त होने पर देव-भक्त की अखंड भेट बनी रहती है-यह अनुभव की वात अनुभवी ही जान सकता है ॥ ३०॥ तीसरा समास-सदुपदेश। ॥ श्रीराम ॥ दुर्लभ नर-शरीर में पूर्ण आयु और भी दुर्लभ है, इस लिए इसका व्यर्थ नाश न करना चाहिए । “ दास कहता है" कि, अच्छी तरह विवेक का अभ्यास करना चाहिए ॥१॥ उत्तम रीति से विवेक का अभ्यास न करने से सारा अविवेक का ही वर्ताव होता है और प्राणी दरिद्री सा देख पड़ता है ॥ २॥ यह अपना आप ही करता है। बालस लोगों को दरिद्री बना देता है और बुरी संगति, देखते ही देखते, डुवा देती है ॥ ३॥ मूर्खता का अभ्यास होने से बेवकूफी सवार होती है और तरु- णाई में चांडाल काम उठता है ॥४॥ तरुण होकर यदि मूर्ख और आलसी हुआ तो वह सब प्रकार से दुख-दरिद्र भोगता है, उसे कुछ नहीं मिलता, ऐसी दशा में किसीको क्या कहा जाय ? ॥ ५॥ उसके पास आवश्यकता की चीजें नहीं होती, अन्नवस्त्र भी नहीं होते और न अन्त:- करण में कोई उत्तम गुण ही होते हैं ॥ ६ ॥ बोलना नहीं आता, बैठना नहीं पाता, प्रसंग (अवसर ) जरा भी मालूम नहीं होता और अभ्यास की ओर शरीर या मन नहीं लगता ॥ ७ ॥ लिखना-पढ़ना, पूछना-बताना वह नहीं जानता और बेवकूफी के कारण उससे निश्चयता का अभ्यास