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दासबोध। [ दशक १७ सातवाँ समास--संसार की गति । ॥ श्रीराम ॥ आदि में जल निर्मल होता है; परन्तु जब वह नाना वल्लियों में प्रविष्ट होता है तब संगदोप से आम्ल, तीष्ण और कटु आदि हो जाता है ॥१॥ आत्मा आत्मपन से रहता है, देहसंग से विकृत होता है और अभिमान से मनमाना रूए बनाता है ॥ २॥ यदि अच्छी संगति मिल गई तो ऐसा हाल होता है कि, जैसे ईख में मधुरता आजाती है (और बुरी संगति से) प्राणी का घात करनेवाली विषवल्ली का सा हाल होता है ॥३॥ अठारह प्रकार की वनस्पतियां है-उनके गुण अलग अलग कहां तक बत- लाये जायें ? यही हाल नाना देहों के साथ आत्मा का होता है॥४॥ उनसे जो अच्छे हैं वे संतसंग से पार होते हैं और विवेकवल से देहा- भिमान छोड़ देते हैं ॥ ५॥ उदक का नाश ही हो जाता है; पर श्रात्मा विवेक से पार हो जाता है-ऐसा इस श्रात्मा का प्रत्यय है; विवेक से.. देखो ॥ ६॥ जिसे स्वहित ही करना है उसे कहां तक बतलाया जाय ? यह सब कुछ प्रत्येक को अपने तई समझना चाहिए ॥ ७॥ जो अपनी आप ही रक्षा करे उसे अपना मित्र जानना चाहिए और जो अपना स्वयं ही नाश करे उसे बैरी समझना चाहिये ॥८॥ जो अपना श्राप ही अनहित करना चाहता है उसे कौन रोक सकता है? ऐसा पुरुप एकान्त में जाकर अपने ही जीव को मारता है ॥ ॥ जो स्वयं अपना ही घातकी है वह आत्महत्यारा पातकी है। जो पुरुष विवेकी है वही साधु धन्य है ॥ १०॥ सत्संगति से पुण्यवन्त और अस- त्संगति से पापिष्ट बनते हैं, गति और दुर्गति संगति के योग से होती है ॥ ११ ॥ इस लिए उत्तम संगति करना चाहिए, अपनी चिन्ता स्वयं करनी चाहिए और ज्ञाता की बुद्धि का अन्तःकरण में अच्छी तरह मनन करना चाहिए ॥ १२ ॥ ज्ञाता को इहलोक और परलोक सुख- दायक होता है और अज्ञानी को अविवेक के कारण दुःख होता है॥१३॥ ज्ञाता देव का अंश है और अज्ञाता राक्षस है, अब दोनों में जो बड़ा हो उसे जान लेना चाहिए ॥ १४ ॥ ज्ञाता सर्वमान्य होता है और अज्ञाता अमान्य होता है। अब दो में से जिसके द्वारा अपने को धन्यता प्राप्त हो उसीको ग्रहण करना चाहिए ॥ १५॥ उद्योगी और चतुर की संगति करने से उद्योगी और चतुर होते हैं, तथा आलसी और मूर्ख की संगति