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2 दासबोध की आलोचना । ४- संक्षिप्त विषय-वर्णन । श्रीरामदासस्वामी ने इसी ग्रन्थ के ७ वें दशक के ९३ समास में ग्रन्थ के लक्षण बताय है । इन लक्षणों के देखने से स्पष्ट मालूम हो सकता है कि ग्रन्थों में क्या होना चाहिए: सच्चा ग्रन्थ कैन है: या उसमें कौन कौन विषय होने हैं । नमूने के लिए दो एक पञ्च देखिए:- जे परमार्थ बाड़े। आंगी अनुताप चढे । भत्ती साधन आवडे । त्या नाच ग्रन्थ ।। ३० ॥ जेणे होय उपरती । अवगुण पालटती। जेणे बुके अधोगती । त्या नाव ग्रन्थ ॥ ३२ ॥ अर्थ-ग्रंथ उसको कहना चाहिए कि जिससे परमार्थ चंद, मन में अनुताप उत्पन्न होवे, भक्ति प्रिय लगे, अवगुण बदल आयें और अधोगति से मुक्त हो । ठीक इन्ही लक्षणों से युक्त समर्थ का यह दासबोध ग्रन्य ! इस संसार में मनुष्यमात्र जन्म से मृत्यु तक अपने मुख ही के लिए यत्न करते हैं। कोई अपने प्रपंच अर्यात गृहस्थी ही में सुख भानते है और कोई परमार्थ में | दोन यद्यपि 'सुख' प्राप्ति ही को अपना उद्देश मानते हैं, तथापि दोनों के प्रयत्नों में और फलों में भेद है । हर एक अपने ही मार्ग को सत्य और अन्य मार्ग को मिथ्या कहता है । परमार्थ-प्राप्ति के मार्ग मे जानेवाले, की संख्या बहुत कम होती है; क्योंकि यह मार्ग कठिन है और इनमें विन्न बहुत है । धैर्यशाली पुरुष ही इसको पार कर सकते हैं। अधिकांश जन स्वार्थ ही में फंसे रहते हैं। इसी लिये इन ले.गों को परमार्थ-मार्ग में लगाने के लिए साधु और संतों के वध की परम आवश्यकता है। इस प्रकार के स्वार्थी-संसारी-जनों के हित का वध इस " दासबोध " अन्य में किया गया है। श्रीरामदासखामी जैसे परमार्थ में पारंगत थे वैसे ही व्यवहार में भी कुशल और दक्ष थे । प्रपंच का काम यथोचित रीति से करते हुए परमार्थ-साधन करने का ही उपदेश उन्होंने इस अन्य में किया है । घर-गृहस्थी में रह कर, सांसारिक सुव कम नीतिपूर्वक करते हुए, शुद्ध अन्तःकरण से यदि ईश्वर की भक्ति की जाय तो निःसन्देह पारमार्थिक सुख की प्राप्ति होगी, यही उचित और यथार्थ उपदेश इन्न ग्रन्थ में दिया गया है। जिस प्रकार शूरता की परीक्षा के लिए रण-भूमि होती है वैसे ही सच्चे ज्ञान की कसौटी का स्थान यही असार ' संसार हैं। जन-समुदाय से अलग होकर जो परमार्थ-प्राप्ति का यत्न करता है उससे संसार में रह कर परमार्थ-प्राप्ति करनेवाला पुरुप अधिक श्रेष्ट और धन्य है। जो इस भवसागर से डर कर दूर भागना चाहता है वह डरपोक है। समर्थ अपने " मनोवोध" में कहते हैं:- भवाच्या भये काय भीतोसि लंडी। धरी रे मना धीर धाकासि सांडी॥