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दासबोध की आलोचना । क्रम ठीक ठीक नहीं मिलता। पहले यदि कुछ अध्यात्मविषयक समास है तो उसके बाद फिर कुछ समास उपदेश-विपयक आ गये हैं, या बीच ही में कुछ वर्णनात्मक समास हो गये हैं । इसका कारण एक प्रचलित दन्त-कथा से मालूम हो सकता है । उस कथा का सारांश यह है कि श्रीरामदासखामी अपनी कूबड़ी में स्याही, कलस और कागज रखते थे। वे जहाँ जहाँ वन में घूमते थे वहीं किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर लिखा करते थे। यह बात सच है कि समर्थ बहुत समय तक एक ही स्थान में न रहते थे । वे सदा भ्रमण ही करते रहते थे। दासबोध के समान बड़ा ग्रन्थ लिखने के लिए बहुत समय तक एक स्थान में रहना आवश्यक था । परन्तु वे कई स्थानों में रहते थे और जब उनकी इच्छा होती तभी कुछ लिखा करते थे । इस प्रकार जो कुछ लिखा जाता था उसके समास वना कर और दस दस समासों का एक एक दशक बनाकर यह ग्रन्थ बहुत समय में तैयार हुआ। पहले समासों में क्या लिखा गया उसका, कुछ समय के बाद, दूसरा समास लिखते समय, स्मरण न रहता होगा; और कदाचित लिखी हुई कापी भी किसी दूसरे स्थान में रह जाती होगी। इसी कारण विषय-क्रम में विसंगति देख पड़ती है। यह बात स्वाभाविक है। पहले आठ दशकों का विषय-क्रम ठीक होने का कारण यह जान पड़ता है कि श्रीसमर्थ ने आठवें दशक तक के सव विषयों की मर्यादा पहले ही से निश्चित कर ली थी। यह वात ग्रन्थ के अन्तःप्रमाण से सिद्ध है । इन आठ दशकों की विपय-मर्यादा निश्चित कर लेने के कारण ही उनमें पुनरुक्ति नहीं है । परन्तु इसके बाद वारह समासों में पुनरुक्ति बहुत है । उदा- हरणार्थ पंच महाभूतों की उत्पत्ति का तात्त्विक विषय कई दशकों में वार वार पाया जाता है। कई समासों के नाम भी एक ही हैं । इस पुनरुत्ति का भी कारण वही कालान्तर और स्थानान्तर है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है । दासबोध की रचना के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान में रखने योग्य है । महाराष्ट्रीय साधुसन्तों के चरित्रकार कवि महीपति जी अपने सन्तविजय में कहते हैं स्वामी प्रसाद-वचने बोलत । कल्याण लिहीत निजहस्ते ॥ पाठान्तराप्रमाणे सुरस । ओव्या बोलती रामदास ॥ ते तो सत्वर लिहीतले । उत्तर न पुसे परतोनी ।। अर्थात् स्वामी रामदास अपने प्रासादिक वचन सुरस ओवी के रूप में बोलते जाते थे, मानों सब ओवियाँ उन्हें कण्ठाग्र हों; और कल्याण स्वामी ( उनके प्रिय शिष्य ) अपने हाथ से शीघ्रता के साथ लिखते जाते थे। कल्याणस्वामी के लिखने की यह तारीफ़ थी कि वे दुवारा नहीं पूछते थे। ३.-ग्रन्थ का महत्त्व और उसकी सर्व-प्रियता । जो समाज सव प्रकार से निकृष्ट दर्जा को पहुँच चुका है उसे ऐहिक और पारमा- र्थिक मार्ग बताकर शाश्वत सुख की प्राप्ति करा देना ही इस अन्य का मुख्य उद्देश है । 1

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